दुनिया के वे देश खुशनसीब हैं , जहाँ कोरोना और बाल मजदूर नहीं है। दुर्भाग्य से भारत में दोनों हैं। ये दोनों अब भारत के लिए समानांतर चलने वाली समस्या हो जाएगी। वर्ष 2015 में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने जबकि बाल मजदूरी सहित मानव दासता के खात्मे का लक्ष्य 2026 रखा है। हकीकत में कोरोना महामारी सिर्फ स्वास्थ्य और आर्थिक से जुड़ा संकट नहीं है, यह बच्चों के भविष्य का भी संकट है।
दुनिया में बाल मजदूरों की संख्या दो वर्ष पहले करीब 26 करोड़ थी, जो साझा प्रयासों से घटकर 15 करोड़ रह गई है, इनमे से अधिकांश एशिया और भारत में हैं। भरोसा था कि निश्चित अवधि में योजनाबद्ध तरीके से इस बुराई का खात्मा किया जा सकेगा,लेकिन पिछले पांच वर्षों में जितनी राजनीतिक इच्छाशक्ति, धन-राशि, नैतिक जवाबदेही और अंतरराष्ट्रीय सहभागिता की जरूरत थी, दुर्भाग्य से उसका अभाव रहा। अब कोरोना ने तो सारी योजना पर पानी फेर दिया है।
कोरोना महामारी के कारण इस साल विश्व के करीब छह करोड़ नए बच्चे बेहद गरीबी में धकेले जाते दिख रहे हैं, इनमें से ही बड़ी संख्या में बाल मजदूर बनेंगे। देश-विदेश की सरकारें 30 करोड़ बच्चों को मध्याह्न भोजन या स्कूल जाने के बदले उनके माता-पिता को नकद धन-राशि देती हैं। एक बार लंबी अवधि के लिए स्कूल छूट जाने के बाद ज्यादातर गरीब बच्चे दोबारा नहीं लौटते। लॉक डाउन तो वो ही रास्ता दिखा रहा है।
कई उदहारण हैं अर्जेंटीना में 2018 में हुई शिक्षकों की लंबी हड़ताल के बाद स्कूलों में बच्चों की संख्या घटी और बाल मजदूरी बढ़ी। लाइबीरिया में फैली इबोला महामारी के बाद भी ऐसा ही हुआ था।भारत सहित कई देशों में कोरोना का दुष्प्रभाव सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े और कमजोर वर्गों पर पड़ रहा है। उनकी गरीबी व बेरोजगारी और बढ़ रही है और बढ़ेगी। इसका खामियाजा उनके बच्चों को भुगतना पड़ेगा। भारत के लाखों प्रवासी श्रमिकों के बच्चों को यह सब भोगना है।
महामारी के इन असामान्य हालातों में बाल मजदूरी बढ़ने से रोकने के लिए हमें कुछ ठोस उपाय करने होंगे। पहला, लॉकडाउन के बाद यह सुनिश्चित करना होगा कि स्कूल खुलने पर सभी छात्र कक्षाओं में वापस लौट सकें। इसके लिए स्कूल खुलने से पहले और उसके बाद भी, उनको दी जाने वाली नकद प्रोत्साहन राशि, मध्याह्न भोजन, वजीफे आदि को जारी रखना होगा।
दूसरा, शिक्षा क्षेत्र में प्रौद्योगिकी को सस्ता और सुलभ बनाकर गरीब व पिछड़े परिवारों के बच्चों को पढ़ाई से जोड़ा जाना जरूरी है। तीसरा, सरकारें गरीबों के बैंक खातों में नकद पैसा दें। साथ ही भविष्य में रोजी-रोटी के लिए उन्हें सस्ते व सुलभ कर्ज उपलब्ध कराएं, ताकि वे साहूकारों के चंगुल में न फंसें और अपने बच्चों को बंधुआ मजदूरी और मानव-व्यापार से बचा सकें। चौथा, अर्थव्यवस्था सुधारने और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए श्रमिक कानूनों को और लचीला बना होगा। बाल व बंधुआ मजदूरी के कानूनों में कतई ढील नहीं देनी चाहिए। पांचवां, देशी और विदेशी कंपनियां सुनिश्चित करें कि उनके उत्पादन व आपूर्ति-शृंखला में बाल मजदूरी नहीं कराई जाएगी। सरकारें निजी कंपनियों के सामान की बड़ी खरीदार होती हैं, इसलिए वे सिर्फ बाल मजदूरी से मुक्त सामान ही खरीदें।
बाल मजदूरी, गरीबी और अशिक्षा में सीधा रिश्ता है। ये एक-दूसरे को जन्म देते पनपते और चलाते हैं, जो समावेशी विकास, में सबसे बड़ी बाधा है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।