‘जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी’ ने हाल ही भारत के संदर्भ में एक अध्ययन किया, जिसके नतीजे चौंकाने वाले हैं। अध्ययन के मुताबिक आने वाले छह महीनों में देश में तीन लाख बच्चों की मौत कुपोषण से हो सकती है। लाखों लोगों के रोजगार छिन जाने से इसका सबसे ज्यादा असर, बच्चों के पोषण पर पड़ रहा है। देश में एक से पांच साल उम्र के बच्चों की हालत पर यदि नजर डालें, तो हर पांच बच्चों में से एक बच्चा कुपोषित है।
कोरोना के कारण सिर्फ पोषण ही नहीं, इस दरमियान बच्चों का टीकाकरण भी रुका हुआ है। वैक्सीन के अभाव में टीके नहीं लग पा रहे हैं। कहीं-कहीं जहां वैक्सीन उपलब्ध है, माताएं कोरोना वायरस के संक्रमण के डर से बच्चों को टीके लगाने अस्पताल नहीं पहुंच रही हैं, जिसकी वजह से बच्चों में बीमारी का खतरा और भी ज्यादा बढ़ गया है। एक अनुमान के अनुसार लॉकडाउन के कारण दक्षिण एशिया के साढ़े तीन करोड़ बच्चे टीकाकरण से वंचित हो गए हैं।
जॉन हापकिन्स यूनिवर्सिटी के शोध को लासेंट जर्नल के ताजा अंक में प्रकाशित किया गया है। वहीं इसमें कहा गया है 118 निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में स्वास्थ्य सेवाएं कोरोना वायरस के संक्रमण के उपचार पर केंद्रित होने से मातृ एवं शिशु से जुड़ीं चिकित्सा सेवाएं बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं।
दूसरे, बीमारी के भय, लॉकडाउन आदि कारणों से लोग स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच भी नहीं पा रहे हैं। तीसरे, इस दौरान कम आय वाले लोगों के काम-धंधा खोने के कारण प्रभावित लोगों की भोजन तक पहुंच घटी है, इससे कुपोषण बढ़ने की आशंका है जो मातृ एवं शिशु मृत्यु दर का प्रमुख कारण बनता है।
शोधकर्ताओं ने कहा कि यदि इन स्थितियों के न्यूनतम प्रभाव से आकलन करते हैं तो 9.8 से 18.5 प्रतिशत तक मृत्यु दर में वृद्धि होने की आशंका है। इससे छह महीनों में पांच साल तक के 253500 अतिरिक्त शिशुओं की मौतें होंगी। इस अवधि में 12200 मातृ मौतें बढ़ेंगी। यदि सबसे खराब स्थिति को मानकर आकलन किया जाए तो 39.9 से 51.9 प्रतिशत तक मौतें बढ़ सकती हैं। इससे 1157000 शिशुओं तथा 56700 माताओं की अतिरिक्त मौतें हो सकती हैं।
देश में बच्चों और गर्भवती महिलाओं को कुपोषण से बचाने लिए बीते छह साल से 13 लाख आंगनवाड़ी केन्द्रों के माध्यम से पोषण आहार दिया जा रहा है। खास तौर से इन केन्द्रों पर एक से छह साल तक के बच्चों को ‘रेडी टू ईट फूड’ मिलता है, जिससे इनका कुपोषण दूर हो। लेकिन कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से देशभर में यह आंगनवाड़ी केन्द्र अभी बंद हैं। देशभर की लाखों आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाएं घर-घर जाकर बच्चों को पोषण आहार बांट रही हैं। लेकिन इन घरों तक जो खाना पहुंच रहा है, वह जरूरत के मुताबिक काफी कम है। जो खाना बच्चों को रोज मिलता था, वह पन्द्रह दिन में एक बार भी नहीं मिल रहा है। बच्चों में कुपोषण के लक्षण दिखाई देने लगे हैं।
मध्य प्रदेश में तो लॉकडाउन के दौरान बच्चों को जरूरत का आधा पोषण ही मिल पाया। जबकि गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को आधे से भी कम पोषण मिला। बच्चों में जरूरत के हिसाब से 693 कैलोरी यानी ५१ प्रतिशत पोषण की कमी दर्ज की गई। वहीं गर्भवती महिलाओं में रोजाना 2157 यानी 67 प्रतिशत और स्तनपान कराने वाली माताओं में 2334 कैलोरी यानी 68 प्रतिशत की कमी आई है। यही नहीं, प्रदेश के आंगनवाड़ी में बच्चों को जो ‘रेडी टू ईट फूड’ मिलता था, उसमें भी लॉकडाउन के दौरान बेहद कमी आ गई। करीब 60 प्रतिशत बच्चों को यह जरूरी आहार नहीं मिला। है जाहिर है कि जब बच्चों को जरूरत के मुताबिक पौष्टिक आहार नहीं मिलेगा, तो वे पूरी तरह से मां के दूध पर ही आश्रित हो जायेंगे । देश में 15 से 49 साल की 54 प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं में खून की कमी है। ये महिलाएं एनीमिया से ग्रस्त हैं। गर्भावस्था और मां बनने के दौरान समुचित पोषण नहीं मिलेगा, तो शिशु भी कुपोषित होगा।
वर्ष 2013 में यूपीए ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक’ लेकर आई, तो यह उम्मीद बंधी थी कि इस विधेयक के अमल में आ जाने के बाद देश की 63.5 प्रतिशत आबादी को कानूनी तौर पर तय सस्ती दर से अनाज का हक हासिल हो जाएगा। कानून बनने के बाद हर भारतीय को भोजन मिलेगा। अफसोस! इस कानून को बने सात साल से ज्यादा हो गए, मगर यह कानून देश के कई राज्यों में सही तरह से अमल में नहीं आ पाया है। रिपोर्ट के मुताबिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली का फायदा 52 प्रतिशत परिवारों को पूरी तरह नहीं मिला है। 18 प्रतिशत परिवार इस योजना से आंशिक तौर पर लाभान्वित हुए हैं। ‘भोजन का अधिकार कानून’ में आठवीं कक्षा तक के बच्चों को स्कूल में मुफ्त भोजन मिलने का भी प्रावधान है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है और शायद होने की उम्मीद कम है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।