भारत और चीन के बीच भाईचारे की पुरानी कहानी को याद कीजिये अब ये ज्यादा गंभीर हो गई है, घाव रिसने लगे हैं। पहले चीन के सैनिक कुछ मीटर तक घुसपैठ किया करते थे, लेकिन अब वे कुछ किलोमीटर तक ऐसा करने लगे हैं। इसका बड़ा कारण मैकमोहन रेखा पर दोनों देशों की अब तक सहमति नहीं होना है। तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश के बीच चीन मैकमोहन रेखा को नहीं मानता, जबकि अक्साई चिन को हम अपना हिस्सा मानते हैं। फिर भी, द्विपक्षीय समझौतों के तहत सैनिक सीमा पर हमेशा तैनात रहे हैं। भारत और चीन के शीर्ष नेतृत्व यह मानते हैं कि एशिया में दोनों देशों के उभरने की पूरी संभावना है।
चीन की इस नई हमलावर रणनीति के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सभी के तार कहीं न कहीं कोरोना वायरस से जुड़े दिखते हैं। दरअसल, महामारी ने चीन की प्रतिष्ठा को काफी चोट पहुंचाई है। एक तरफ पश्चिमी देश कोरोना को ‘वुहान वायरस’ कहने लगे हैं, तो दूसरी तरफ उन राष्ट्रों ने चीन से राहत-पैकेज की मांग की है, जहां ‘बेल्ट रोड इनीशिएटिव’ के तहत विभिन्न परियोजनाओं पर काम चल रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उन देशों में कोरोना संक्रमण से जान-माल का अपेक्षाकृत अधिक नुकसान हुआ है। नतीजतन, उन देशों पर चीन का कर्ज बढ़ता चला गया है, और अब वे मुआवजे के लिए चीन पर दबाव बना रहे हैं।
चूंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी बोर्ड (जिसके मुखिया भारत के स्वास्थ्य मंत्री हैं) ने कोरोना वायरस के जन्म का सच जानने के लिए स्वतंत्र जांच कमेटी बनाई है, इसलिए चीन सीमा-विवाद को हवा देकर भारत पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है। इसी रणनीति के तहत उसने पाकिस्तान को लगातार उकसाने का काम किया है और इन दिनों नेपाल के नेताओं को अपनी तरफ मिलाने की जुगत लगाई और इसी की अगली कड़ी यह हमला है।
हमारे सामने 1962 की गलतियों का एक सबक यह है कि हम चीन को उसी की भाषा में जवाब दें। हमारे सैनिकों ने लद्दाख की घटना के बाद ऐसा किया भी है। भारत की बढ़ती हैसियत के कारण ही चीन ने हमसे कई तरह के तार जोडे़ हैं। फिर चाहे वह रूस के साथ मिलकर त्रिपक्षीय गुट आरआईसी (रूस, भारत और चीन) बनाना हो, या शंघाई सहयोग संगठन में भारत को शामिल करना, या फिर ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का संगठन) को मूर्त रूप देना।
चीन यही नहीं रुका | इस आड़ में उसने भारत के बाज़ार पर कब्जा किया। भारत की 30 में से 18 यूनिकॉर्न, यानी एक अरब डॉलर (करीब 7600 करोड़ रुपए) या उससे अधिक मूल्यांकन वाली कंपनी में चीन की बड़ी हिस्सेदारी है।चीन की कंपनियों ने 2014 में भारत की कंपनियों में 51 मिलियन डॉलर निवेश किया था। यह 2019 में बढ़कर 1230 मिलियन डॉलर हो गया। मतलब 2014 से 2019 के बीच चीन ने भारतीय स्टार्टअप्स में कुल 5.5 बिलियन डॉलर का निवेश किया है। चीन की जिन कपंनियों ने भारत में निवेश किया उनमें अलीबाबा, टेंशेट और टीआर कैपिटल सहित कई दिग्गज कंपनियां शामिल हैं।इन्ही में से कुछ को रिलायंस खरीद रही है या खरीद चुकी है।
भारत में अब तक ऐसी 75 कंपनियों की पहचान हुई है जो ई-कॉमर्स, फिनटेक, मीडिया/सोशल मीडिया, एग्रीगेशन सर्विस और लॉजिस्टिक्स जैसी सेवाओं में हैं और उनमें चीन का निवेश है। हाल ही में आई रिपोर्ट के अनुसार भारत की 30 में से 18 यूनिकॉर्न में चीन की बड़ी हिस्सेदारी है। यूनिकॉर्न एक निजी स्टार्टअप कंपनी को कहते हैं जिसकी वैल्यूएशन एक अरब डॉलर या उससे अधिक होती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि तकनीकी क्षेत्र में ज्यादा निवेश के कारण चीन ने भारत पर अपना कब्जा जमा लिया है।
चीन की स्मार्टफोन बनाने वाली कंपनियों की भारतीय बाजार पर पकड़ जग जाहिर है। भारत में स्मार्टफोन का बाजार करीब 2 लाख करोड़ रुपए का है। चाइनीज ब्रैंड जैसे ओप्पो, श्याओमी और रेडमी ने 70 प्रतिशत से ज्यादा मोबाइल मार्केट पर कब्जा कर लिया है। इसी तरह 25 हजार करोड़ के टेलीविजन मार्केट में चाइनीज ब्रांड का 45 प्रतिशत तक कब्जा है।
सीमा विवाद के अतिरिक्त चीन इसलिए भी नाराज है, क्योंकि भारत और अमेरिका हाल के वर्षों में काफी करीब आए हैं। चीन ने कभी मध्य-पूर्व और अफगानिस्तान के आतंकी गुटों से हाथ मिलाकर एशियाई देशों को अस्थिर करने की कोशिश की थी। आज भी वह पाकिस्तान को शह देता रहता है। इसलिए यह लाजिमी है कि हम अपनी ताकत इतनी बढ़ा लें कि चीन की ऐसी हरकतों का मुंहतोड़ जवाब दे सकें और आगे से ऐसा कोई कदम उठाने की सोच भी न सके।
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करें) या फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।