लॉक डाउन न होता तो, अभिशप्त भारत कैसे दिखता ? / EDITORIAL by Rakesh Dubey

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आज दो जून है, अभिशप्त भारत को मुहावरे में नहीं सच में दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो रहा है। कोरोना के कारण लॉक डाउन और लॉक डाउन के दौरान भारत के वास्तविक दर्शन हुए। उस भारत के जिसे प्रकृति ने नहीं राजनीति ने बनाया वो एक अभिशप्त भारत है। लॉक डाउन में प्रकृति ने अपनी करामात दिखाई पर्यावरण शुद्ध हो गया, नदियां साफ हो गईं, आकाश के तारे दिखाई देने लगे और पशु-पक्षी भी आनंद से जीने लगे, पर लॉकडाउन से अभिशप्त भारत की जी झांकी भी सामने आई, उसे सारी दुनिया ने देखा। यह झांकी बड़ी भयानक है।

लॉक डाउन से पहले अर्थात आज से तीन महीने पहले तक जो गरीब जहां था, जितना कमा रहा था, गंदी बस्ती में नारकीय जीवन जी रहा था, नंगे-भूखे बच्चों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। इसका करुण और कठोर सत्य समृद्ध समाज और सत्तापतियों ने कभी सोचा नहीं था, कभी देखा नहीं था। लॉकडाउन के कारण कारखाने बंद हुए, व्यापार ठप हो गए, भवन निर्माण के काम बंद हुए, दिहाड़ीदार मजदूर के हाथ खाली हो गए, रिक्शा चालक, आटो चालक, रेहड़ी-फड़ी वाले सब बेकार हो गए तब वे लोग जो अपने घर-गांव से हजारों किलोमीटर दूर रोटी कमाने के लिए आए थे, अब उसके भी लाले हो गये। सच मायने में वर्षों से वे केवल रोटी ही तो खा रहे थे, कुछ बचा पाना, मकान बना लेना, बच्चों को अच्छी शिक्षा देना उनके लिए आज़ादी के इतने बरस बाद भी सपना था । अब सबसे पहले पेट भरने का सवाल था| यह पेट उनके गाँव में भरे, इसकी जरूरत है।

अब तक देश के सत्ताधीशों ने कभी यह नहीं सोचा कि झुग्गी बस्तियां क्यों बन रही है स्लम एरिया क्यों लंबे-चौड़े होते जा रहे हैं। जनसंख्या विस्फोट क्यों नहीं रुक रहा है , कम मजदूरी में मजबूर मजदूर मेहनत करने को क्यों विवश है? अनेक सर्वे को मिलाकर जो एक नजरिया बनता है वो अभिशप्त भारत का है। जिसमें पूरे देश में लाखों ऐसी बस्तियां मौजूद थी और हैं। जहां रहने मनुष्यों को कभी मानव होने का सुख नहीं मिला। मानव अधिकारों का शोर सिर्फ राजनीति तक गूंजा। किसी ने कभी कोशिश नहीं की कि ये देखें इन लोगों को पीने के लिए साफ और शुद्ध पानी मिलता भी है या नहीं। साफ पानी तो दूर की बात, पानी मिलता है या नहीं यह मूल प्रश्न था। ऐसे ही लोग इस दुष्काल में सिर पर बोझ उठाकर, कंधों पर बच्चों को बिठाकर, दो-चार थैले उठाने को विवश कर गर्भवती पत्नी को साथ लेकर पैदल ही कहीं-कहीं बिना जूते के ही गांव की ओर चल पड़े, तो देखा यह ही वह अभिशप्त भारत है जिसकी सब अनदेखी करते आ रहे हैं।

इस अभिशप्त भारत की सैर राजनेता चुनाव के दिनों में करते रहे हैं , इस अभिशप्त भारत के लोगों को भविष्य का कोई स्वप्न दिखा और छोटी-मोटी भेंट देकर थोक में इनके वोट लेकर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जे की परिपाटी देश में विकसित हो गई है। मैले-कुचैले बच्चे को गोद में उठाकर फोटो भी खिंचवाना,किसी झोपड़ी में बैठकर रोटी खाना चुनावी कार्यक्रम का एक हिस्सा बन चुका है। चुनाव का बाद यह मजदूर कैसा होता है जैसा देश ने इस दुष्काल में देखा है। एक पंद्रह वर्षीय बेटी गुड़गांव से दरभंगा तक अपने पिता को साइकिल पर बिठाकर लाई। अब गाड़ियां ट्रेन सब निरर्थक हैं। गहराई से सोंचे तो स्वतंत्रता के पहले दो दशक तो देश संभालने में लग गए। देश में अनाज पैदा नहीं होता था। पाकिस्तान से उजड़कर आए लाखों लोगों को बसाना था। सेना और अन्य सुरक्षा बलों को तैयार भी करना था। आजादी के पंद्रह वर्ष बाद ही चीन से भी लड़ना पड़ा, जहां हम कामयाब नहीं हुए पर 1965 में हम दुश्मन को धूल चटाने में कामयाब हो गए। उसके बाद जिन्होंने भी देश संभाला उन्होंने क्या किया?

कोरोना का जो भयानक रूप मुंबई में देखने को मिल रहा है उसके मूल में धारावी जैसी बस्ती के भी बड़ी संख्या में लोगों का संक्रमित होना है। दिल्ली में, बंगाल में, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा पंजाब में आखिर स्लम क्यों बने रहे? किसके पास इसका जवाब है ? इन लोगों को मानवीय जीवन देने का प्रयास क्यों नहीं हुआ?
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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