देश में इन दिनों आत्मनिर्भरतता और उसके विभिन्न आयामों को लेकर बहस चल रही है। देश की ३३७ प्राइवेट यूनिवर्सिटी, 400 राज्य यूनिवर्सिटी, 126 डीम्ड यूनिवर्सिटी, 48 सेंट्रल यूनिवर्सिटी, 31 एनआईटी, 28 आईआईटी और 19 आईआईएम यानी कुल संस्थान 984 और कुल छात्र लगभग 3.66 करोड़। लेकिन पढ़ाई- लिखाई के संसार में न तो हमारी कोई साख है और न कोई महत्व। कारण शोध में अरुचि होना है।
आत्म निर्भरता के आयामों में सबसे महत्वपूर्ण आयाम शोध है। क्या कोई भी राष्ट्र, समाज या फ़िर व्यक्ति बिना शोध के आत्मनिर्भर हो सकता है? एक बड़ा सवाल है। किसी भी राष्ट्र या समाज के विकास के लिए उस समाज या राष्ट्र में शोध को बढ़ावा देना जरूरी होता है। विकास तभी संभव है जब उस राष्ट्र के लोगों का जीवन मूल्य उच्चकोटि का होगा। राष्ट्र का समाज सांस्कृतिक रूप से मजबूत हो। नई-नई तकनीक विकसित हों। अनुसंधान और नवाचार को कार्य संस्कृति का हिस्सा बनाया जाए। ऐसे में शोध हर क्षेत्र की प्राथमिकता में रहता है| इसके बिना आत्मनिर्भरता की बात सोचना ही सही नहीं है यदि आत्मनिर्भरता राष्ट्र के विकास का पहला पायदान है तो शोध उसका श्री गणेश।
ज्ञान के विकास में, प्रगति के उद्देश्य प्राप्ति हेतु, समाज और राष्ट्र को नई गति प्रदान करने में, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय भावना के विकास में, सुधार में, सत्य की खोज में, प्रशासनिक आदि अनेक क्षेत्रों में शोध सहायता प्रदान करता है। तभी तो शोध को जॉन डीवी ‘प्रगतिशील प्रक्रिया’ मानते हैं। वैसे भी भारत जैसे देश में शिक्षा का महत्व हमेशा से रहा है और उसे सर्वोच्च धन के रूप में स्वीकार किया गया है। ऐसे में देखें तो राष्ट्र के निर्माण के लिए जरूरी कोई भी पक्ष हो। वह नवीकरणीय ऊर्जा का क्षेत्र हो, धर्म और दर्शन का क्षेत्र हो। अंतरिक्ष से जुड़ी बातें हों। शिक्षा या समाज से जुड़ी संकल्पनाएं हों। सभी क्षेत्रों में जब तक शोध के महत्व को अंगीकार नहीं किया जाएगा तब तक एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता।
भारत को हम विश्व के युवा राष्ट्र के रूप में सृजनात्मकता, उद्यमिता, नवाचार, शोध एवं अनुसंधान का महत्वपूर्ण केंद्र बना सकते हैं। इन सब बातों के मद्देनजर देखें तो आज शिक्षण संस्थानों आदि को लेकर देश के हर प्रगति केंद्र में राजनीति ख़ूब होती है। इससे हमारी वह बात सिद्ध नहीं होती कि आप कभी विश्वगुरु थे। इतिहास को नहीं वर्तमान को आँखें खोलकर देखिये। वैश्विक रैंकिंग में दुनिया के 300 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं आता। वर्ष 2012 के बाद टॉप-300 में भारत का कोई विश्वविद्यालय नहीं है। 92 देशों के 1396 संस्थानों में भारत का नंबर 300 से नीचे आता है। केवल आई आई टी रोपड़ को ग्लोबल रैंकिंग में टॉप 350 संस्थानों में जगह मिली है।
ऐसे में आत्मनिर्भर भारत बनाना है तो अनुसंधान एवं विकास पर ख़र्चा बढ़ाने की दिशा में सोचना होगा। भारत शोध एवं विकास पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 0.6 प्रतिशत खर्च करके वैश्विक व्यवस्था के साथ चल सकता है और न ही आत्मनिर्भर बन सकता है सबको यह बात समझ लेना चाहिए। खास तौर पर उन्हें जिन्हें ये गुमान है कि वे देश चला रहे हैं, या चला सकते हैं।
तुलना कीजिये अमेरिका में सरकार के स्तर पर अनुसंधान और विकास पर कुल जीडीपी का 2.8 प्रतिशत, चीन में 2.1 प्रतिशत , इस्राइल में 4.3 प्रतिशत और दक्षिण कोरिया में 4.2 प्रतिशत ख़र्च होता है। भारत में सार्वजनिक निवेश की तुलना में निजी निवेश अनुसंधान एवं विकास क्षेत्र में काफ़ी कम है। अधिकांश देशों में अधिकतर कार्य निजी क्षेत्र द्वारा किया जाता है। भारत में प्राथमिक स्रोत के साथ ही साथ अनुसंधान एवं विकास निधि की उपयोगकर्ता सरकार ही है। फ़ोर्ब्स की 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की शीर्ष 2500 कंपनियों द्वारा अनुसंधान और विकास पर ख़र्च करने वाली सूची में चीन की 301 कम्पनियां शामिल हैं, जबकि भारत की सिर्फ़ 26 ही। ऐसे में बात अब मेड इन इंडिया और मेक इन इंडिया से आगे निकलकर ‘मेड बाय इंडिया’ की हो रही है। जरा सोचिये ऐसे में गुणवत्ता की दिशा में कब बढ़ेगा भारत, सवाल अपने आप में है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।