मध्यप्रदेश राजनीति के वैचारिक क्षरण के अंतिम पायदान की ओर अग्रसर है। वो घड़ी नजदीक आ रही है जब आधी जिन्दगी कांग्रेस का झंडा थामने वाले, भाजपा सरकार के मंत्रिमंडल के सदस्य होंगे, यह मध्यप्रदेश कांग्रेस का एक धडा है और उसके मुखिया ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने वैचारिक आधार और सिद्धांत बदल कर राज्यसभा सदस्य बन गये हैं। कांग्रेस छोड़ते समय उनकी दलील थी कि उन्हें वहां सेवा का मौका नहीं मिल रहा था। कोविड-19 ने और उनकी नई पार्टी ने उन्हें ये अवसर दिया सेवा में तो वे दृष्टिगोचर नहीं हुए, बीमार जरुर हो गये।
आम कांग्रेसियों में उन्हें लेकर काफी अधिक आशाएं थीं| उन्हें वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत को अग्रणी राष्ट्र बनाने की दिशा में ले जानेवाले सक्षम राजनेताओं का अग्रिम प्रतिनिधि माना जाता था। उनके खानदान और शैक्षिक अवदान, को कांग्रेस में सब जानते हैं, यहां तक कि राहुल गांधी भी कॉलेज के दिनों में सिंधिया के साथ अपने संबंध पर गर्व करते थे। लेकिन, अब इस आधुनिक और सुसंस्कृत नेता के सारे गुणों के बाद भी उनकी ‘विचारधारा’ की व्याख्या करना अब मुश्किल है । वैसे तो इन दिनों गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद और अन्य द्वारा स्थापित सैद्धांतिक नींव पर आधारित मूल कांग्रेस तो इतिहास की बात होती जा रही है।
इस सारी कवायद अर्थात ज्योतिरादित्य सिंधिया का भाजपा में शामिल होना राजनीतिक रूप से सुरक्षित ठिकाना पाने का काम था, जहां उन्हें आडंबर के तौर पर भी विचारधारात्मक झुकाव दिखाने की बात सोचनी नहीं होगी।भाजपा में उन्हें वही मिलेगा जो समझौतों में तय हुआ है |वैसे राहुल गांधी और सिंधिया, दोनों का बोध-जगत संभवतः एक जैसा है. राहुल गांधी पंडित नेहरू के प्रपौत्र हैं, तो सिंधिया राजमाता विजया राजे सिंधिया के पौत्र हैं| दोनों की जड़ें विपरीत राजनीतिक धरातल से हैं, लेकिन राजनीतिक और कार्यक्रम संबंधी मुद्दों पर ये एक जगह से चलकर विपरीत दिशा में आ गये। राहुल गांधी ने भी नेहरूवादी दृष्टि पहले ही छोड़ दी थी, वहीं सिंधिया ने अंततः अपना नाता अपनी पारिवारिक जमीन से जोड़ लिया।
ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया को अर्जुन सिंह की मदद से संजय गांधी कांग्रेस पार्टी में लाये थे| राजीव गांधी, सोनिया गांधी या राहुल गांधी की नजदीकी मंडली में भी माधवराव सिंधिया जैसे लोगों का प्रमुख स्थान था| इसमें विचारधारा-प्रेरित राजनेताओं की कोई भूमिका नहीं थी।नेहरु काल में और उससे पहले कांग्रेस के पास ऐसे सहयोगियों की विशेष मंडली थी, जो तकनीकी-प्रबंधकीय रुझान वाले न होकर विचारधारा से प्रेरित थे| हिंदू महासभा को रोकने के लिए कांग्रेस ने पार्टी का टिकट देकर विजया राजे सिंधिया को आगे बढ़ाने का प्रयास किया था| वे पहले कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गयी थीं, लेकिन बाद में वह जनसंघ की संस्थापक बनीं।
आज़ादी के बाद भारत में रियासतों के शासक औपचारिक सत्ता संरचना के जरिये अपना वर्चस्व जारी रखना चाहते थे| उनके पास धन या लोकप्रिय आधार की भी कमी नहीं थी| कांग्रेस पार्टी ने उन्हें सत्ता संरचना में समाहित कर लिया| इस प्रक्रिया में रियासतों और कॉरपोरेट घरानों द्वारा प्रायोजित पहली प्रामाणिक दक्षिणपंथी पार्टी दरकिनार होती गयी| नये दौर में स्मार्ट, अंग्रेजी-भाषी, विचारधारा-विहीन प्रबंधकों द्वारा राजनीति को जो शक्ल दी गई उसमें सीनियर और जूनियर, दोनों सिंधिया फिट बैठे| अब कांग्रेस पार्टी के सत्ता से बाहर होने से विचारधारात्मक गर्भावधि का ज्योतिरादित्य इंतजार नहीं कर सके|
आज देश में विचार धारा का संकट है, इसे विडंबना ही कहेंगे कि कांग्रेस को आज ऊपर के नेताओं ने हथिया रखा है , जबकि भाजपा को तैयार करने वाले नेता भी हाशिये पर धकेले जा रहे हैं | सिधिया के साथ विचार बदल कर आये नेताओं के कारण भाजपा में भी असंतोष है, इसे कथित अनुशासन कब तक दबा पायेगा ?
इस परिदृश्य में ज्योतिरादित्य सिंधिया का पार्टी से निकलना, अभी सांसद, आगे मंत्री होना खुद उनके लिए ठीक हो सकता है | उन दोनों विचारधाराओं के लिए तो कतई जिसमे वे थे या अब है | कांग्रेस के लिए बेहतर निजात ही नहीं है, भाजपा के मूल से जुड़े लोगों के लिए भी यह समझौता सम्मानजनक कहाँ है ?वास्तव में यह दोनों पार्टी के पास कुछ नयापन लाने का अवसर है,लेकिन अपने सामाजिक आधार का विस्तार के लिए मेहनत कांग्रेस को ज्यादा करना होगा | वैसे अनुशासन तो अब भाजपा में भी दरकने लगा है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।