मध्यप्रदेश के दूरदराज के गांवों से मजदूर वापिस लौट रहे हैं | महानगरों की और जा रही रेल भरी हुई हैं |देश के अन्य भागों से भी ऐसी ही खबरें आ रही हैं।भारत में मार्च में लॉकडाउन की घोषणा हो गई थी। ऐसे में सबसे ज्यादा प्रभावित प्रवासी मजदूर हुए थे। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में लॉकडाउन ने ४ करोड़ आंतरिक प्रवासियों के जीवन को प्रभावित किया है। लॉकडाउन ने प्रवासी मजदूरों के बीच चिंता और तनाव को बढ़ाया है। अब महानगरों की कम्पनी ने मजदूरों को बुलाने के लिए टिकट भेजे हैं। वे इनके रहने, खाने, आवास और सुरक्षा का भी बंदोबस्त कर रही हैं। यही नहीं, जिन गांवों की तरफ ये गए हैं, वहां के रसूखदारों से बात की जा रही है। बड़े लोगों से सम्पर्क कर इन्हें वापस भेजने का आग्रह किया जा रहा है। सरकारें गावों में काम देने की योजना बनाती रही भूख, बेरोजगारी और गांवों में हुए व्यवहार ने फिर उन्हें वापस लौटने को मजबूर कर दिया है|
इन बेचारे मजदूरों का पिछले चार माह में दो बार मोहभंग हुआ है। पहले वे मुसीबत देखकर, शहरों से गाँव को भागे। गांवों में उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया गया। मानवता को हिला देने वाली तस्वीरें सामने आईं। किसी को क्वारंटाइन का चौदह दिन का समय काटने के लिए पेड़ का सहारा लेना पड़ा |तो कोई माँ को अपने दुधमुंहे के साथ गांव से बाहर खेत में में १४ दिन काटने पड़े । गांव वालों ने गांवों के बाहर बाड़ लगा दी, जिससे कि बाहर से आने वाले, चाहे अपने गांव के ही क्यों न हों, अंदर न घुस सकें।बहुत से लोगों को चौदह दिन के क्वारंटाइन के लिए स्कूलों में ठहराया गया। जहां कई स्थानों पर रहने, खाने, यहां तक कि पानी की व्यवस्था नहीं थी। बहुत से गांवों में तो स्कूल भी नहीं थे।
गांवों में मजदूरों की पूछ परख इसलिए भी नहीं हुई कि पहले जब वे वार, त्योहार छुट्टियों में गांव जाते थे, तब वे घर के सब लोगों के लिए छोटे-मोटे उपहार लेकर जाते थे। जेब में थोड़ा-बहुत पैसा भी होता था। फिर घरवालों को यह भी पता होता था कि वे थोड़े दिनों के लिए ही आए हैं। जल्दी ही वापस चले जाएंगे। इन दिनों तो जो जैसा बैठा था, वैसे ही भागा। खाली हाथ। बिना किसी सामान और उपहार के। गांव में रहने वाले परिजनों को लगा कि वे बोझ की तरह आ गए। पता नहीं वापस जाएंगे भी कि नहीं। संसाधनों की कमी के कारण रहने, खाने-पीने की दिक्कत भी होने लगी। शहर से परायों का अपमान झेलकर घर की तरफ दौड़े थे। गांव में अपनों की उपेक्षा और तिरस्कार को झेल नहीं सके। फिर यह भी कि अगर कम्पनियां वापस बुला रही हैं, नौकरी का भरोसा दे रही हैं, सुख-सुविधाओं का ध्यान रख रही हैं, तो चले ही जाएं। कल पता नहीं क्या हो। आज तो घर बैठे नौकरी के लिए बुलाया जा रहा है, कल मिले न मिले।
वैसे भी गांव में तो कोई रोजगार नहीं।सरकार की बाते पैकेज में है हर एक के साथ शर्त जुडी हुई | अगर गाँव में रोजी-रोटी का साधन होता, रोजगार होते, जरूरतें पूरी हो सकतीं तो पहले ही गांव से शहरों की तरफ आते ही क्यों? गांवों में तो अब भी ज्यादा से ज्यादा मनरेगा का काम है, वह भी हमेशा के लिए नहीं मिलता और सबको नहीं मिलता। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं।
श्रम को अपना सब कुछ मानने वाले मजदूर जहाँ भी रुके, उन स्थानों की उन्होंने तस्वीर ही बदल दी। एक स्कूल में जहां वर्षों से रंग-रोगन नहीं हुआ था, उसे इन हाथों ने चमका दिया और बदले में पैसे भी नहीं लिए। एक गांव के बाहर एक बड़े पार्क की न केवल साफ-सफाई की , पेड़-पौधे लगाए। ये मेहनतकश हाथ कभी खाली नहीं बैठ सकते। अब भी खाली बैठ कर सरकार की योजना कब आएगी, की बाट नहीं जोह सकते |
‘भारत’ और ‘इण्डिया’ दो अलग पहचान हो गई हैं | और जब से तकनीक का भारतीय जीवन में प्रवेश हुआ, यह खाई और चौड़ी हो गई | गलती यहीं हो गई तकनीक को जादू की छड़ी समझ श्रम के महत्व को कम करने की लगातार कोशिश हुई जो अब भी जारी है | मान लिया गया कि अब सब कुछ तकनीक की मदद से हो सकता है। श्रमिकों को बिल्कुल ही भुला दिया गया। मालिकों ने भी उनकी सुख-सुविधा, उनकी पगार में बढ़ोतरी का कोई ख्याल नहीं किया। लेकिन कोरोना के कारण जब वे अपने-अपने घरों की तरफ दौड़े और लॉकडाउन खुला तो पता चला कि इन तथाकथित चमकदार उद्योगों को चलाने और अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए आज भी उनकी कितनी जरूरत है।
बीते जमाने में मजदूरों को परिवर्तन का वाहक माना जाता था। उनके श्रम की कद्र होती थी।
दुःख यह है मीडिया ने जिस तरह से इनका जाना दिखाया, इनके लौटने की खबरें नहीं दिखा रहा है । वैसे भी किसी भी आपदा में हुआ विस्थापन अक्सर अस्थायी होता है।
जैसे भी चले अब कम से कम उनकी घर-गृहस्थी चल सकेगी। वे अपने परिवार का जीवन चला पाएंगे।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।