बीते कल यानि 5 जून को, विश्व पर्यावरण दिवस था। विश्व की सबसे बड़ी पूंजी को याद करने का दिन। अर्थशास्त्र में भौतिक पूंजी, वित्तीय पूंजी, और मानव पूंजी, समाज शास्त्र में सामाजिक पूंजी की अवधारणा चर्चित है, परंतु इन सबसे ऊपर विश्व की सामूहिक पूंजी, “प्राकृतिक पूंजी” है। पिछले दो दशकों से प्राकृतिक पूंजी चर्चा का विषय है। कोरोना के लॉकडाउन में इसकी महत्ता और भी बढ़ गयी है।
दुनिया के वैज्ञानिक और चिंतक इस कोरोना दुष्काल को प्रकृति द्वारा बदला लेने के दृष्टिकोण से देख रहे हैं और कुछ-कुछ लोग माल्थस के सिद्धांत को याद कर रहे हैं कि मनुष्य अपने से जनसंख्या का नियंत्रण नहीं करता है, तो प्रकृति उसे अपने तरीके से नियंत्रित करेगी| निश्चित रूप से पृथ्वी के संसाधनोंको मानव ने नष्ट किया है। लेकिन ये भी सत्य है कि कभी पृथ्वी ने हजार की जनसंख्या को पाला है और अब 7.8 अरब जनसंख्या को भी पाल रही है।
इतना जरूर है कि पूरे ब्रह्मांड में अनंत शक्तियां हैं, जो इतने लोगों को पालने की क्षमता भी रखती हैं। जो भी हो, मानव शक्ति प्रकृति की अनंत शक्तियों के साथ बिना तालमेल के बढ़ रही है और कोरोना प्रकृति के प्रतिशोध का बस एक नमूना है। कुछ सालों में ध्रुवीय बर्फ पिघलने और समुद्री जलस्तर बढ़ने की बातें होती रही हैं, साथ ही विभिन्न देशों में कहीं सूखा और कहीं बाढ़, तो कहीं अत्यधिक बर्फबारी की खबरें आम हो गयी।
प्राकृतिक पूंजी यानी प्रकृति प्रदत्त सार्वजनिक वस्तु, जिसके उपभोग के लिए आप किसी को रोक नहीं सकते| ये मनुष्य को सहज और स्वतंत्र मिली हुई हैं, जैसे- हवा, पानी, नदी और समुद्र की मछलियां, पेड़-पौधे, अन्य प्राकृतिक साधन आदिको अपने लाभ के लिए इस सर्वसुलभ ग्लोबल एवं सार्वजिक को व्यक्तिगत संपत्ति के तौर पर घेरना और यह अत्यधिक दोहन कितने ही विवाद पैदा करता रहा है। ये महामारियां इस असंतुलित दोहन का दुष्परिणाम हो सकती हैं. अत्यधिक गर्मी, वर्षा, सूखा, ग्लेशियर का पिघलना भी अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप के परिणाम ही तो हैं। प्राकृतिक पूंजी की उत्पादकता को सतत बनाये रखना ही सतत विकास की राह को सही दिशा देगा, प्राकृतिक पूंजी का संचयन अत्यधिक किया जा सकता है, अगर उस पर मानवीय हस्तक्षेप कम हों, जैसे अभी लॉकडाउन में प्रकृति का हर अंश पल्लवित है और स्वच्छ पानी नदियों में है, वायु प्रदूषण कम होने से हिमालय काफी दूर से दिखने लगा है, समुद्री किनारे पर डॉल्फिन घूम रही हैं। इससे इतर जाने असंतुलन उत्पन्न होगा और उसके भयानक दुष्परिणाम होते रहेंगे।
भारत के सारे आदिवासी बहुल क्षेत्र प्रतिकूल परिस्थिति में भी प्रकृति के साथ सहजीविता के लिए मशहूर हैं| बहुत सारे गांवों में अभी भी जंगल सुरक्षा की व्यवस्था है, जिसे ‘मोहरी' कहा जाता है। इसमें लोग अपनी बारी के अनुसार एक दिन या एक सप्ताह का समय देते हैं और जंगल की सुरक्षा में जंगल में ही घूमते रहते हैं| कोई व्यक्ति अगर गांव के निर्णय के विरुद्ध पेड़ काटता है, तो उसे दंड दिया जाता है और उसकी कुल्हाड़ी जब्त कर ली जाती है|किसी व्यक्ति को अगर पेड़ की जरूरत है, तो वह गांव से अनुमति लेता है| जब कभी भी वन संसाधन या वनोपज के तैयार होने का मौसम आता है, गांव वाले एक साथ निर्णय कर जंगल का रुख करते हैं। जैसे, चिरौंजी के फल तोड़ने के वक्त प्रति परिवार लगभग दो वयस्क व्यक्ति ही जंगल जाते हैं, ताकि मनोवैज्ञानिक रूप से समान विभाजन का दृष्टिकोण निहित रहे| लोग अपनी क्षमता के अनुसार कम या ज्यादा तोड़ लेते हैं, लेकिन काम विभाजन का दृष्टिकोण बराबर का ही रहता है| बहुत बार तो एक साथ मछली मारने या एक साथ चिरौंजी तोड़ने के बाद बराबर बांटा भी जाता है।
कोरोना के आगमन से भले देश बदले-न-बदले, दुनिया पर राज करनेवाले महत्वाकांक्षियों का दृष्टिकोण बदले-न-बदले, व्यक्तिगत रूप से सब सोचने को विवश हैं कि चींटी से लगभग 3000 गुना छोटे विषाणु ने अपने से अरबों-खरबों गुना बड़े आकारवाले मनुष्य को उसकी औकात बता दी है, जिस प्रकार कुछ सालों में इबोला, जिका, एचवन एनवन जैसे विषाणु दस्तक देते रहे हैं, आनेवाले समय में मनुष्य को पहले जैसी आजादी नहीं मिलने वाली है।
यह जिंदा रहने की कवायद है, और जो शारीरिक और मानसिक रूप से अत्यधिक ठंड या गरम की स्थिति में भी सबसे अधिक मजबूत है, वही जिंदा रहेगा. यह भी हो सकता है कि जिस जंतु में कोरोना पल्लवित होता है, उसे समय के साथ मनुष्य ने विलुप्त कर दिया हो और कोरोना का जिंदा रहने का एकमात्र विकल्प मनुष्य खुद बच गया हो, और इसी वजह से विषाणु ने मनुष्य को अपना घोंसला बना लिया हो| कुल मिलाकर यदि मनुष्य को जिंदा रहना है, तो उसे प्रकृति के साथ सहजीविता रखनी पड़ेगी।
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करें) या फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।