मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में मंत्रालय वल्लभ भवन या विधानसभा जाते समय जब भी उस मलबे के ढेर, जो कभी पत्रकार भवन था के सामने से गुजरता हूँ, ग्लानिभाव से भर जाता हूँ। हमारी सज्जनता के नतीजों के कारण यह ग्लानि भाव कभी आपको भी आता होगा। इसी सज्जनता के कारण जिन्हें कभी कलम उठाना नहीं आया वे पत्रकार बन बैठे। पत्रकारिता के नाम पर सारे कलंकित काम किये और हम सज्जनता के नाम पर पर चुप रहे।लेकिन,अब और चुप रहना, ऐसे लोगों की जमात जो कलमवीरों से कई गुनी बड़ी, समृद्ध और राजनीति संप्रभुओं से अभयप्राप्त है का मूकसमर्थन होगा। इस समय सज्जनता नाक-कान में पहने जाने वाले उस आभूषण की तरह हो गई है, जो आपको नकटे-बूचे जैसे उपमान ही दिलाएगी।
जिस दिन पत्रकार भवन शहीद किया गया था, तब वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर ने एकदम सत्य बात कही थी कि “अगर परहेज नहीं बरता होता, तो पत्रकार भवन के साथ यह गुनाह नहीं होता।” ऐसे ही चुप्पी हमने अपनी साख के साथ बरती। जिसके परिणाम स्वरूप कोई कम्पोजीटर, भगौड़ा हुंडीबाज़, कोई गुटका मालिक, कोई सटोरिया और इसके आगे भी .... आपकी जमात में आकर कालर खड़ी कर आपके आगे पत्रकार वार्ता मुख्यमंत्री से मुखातिब होने लगे। इसी परहेज के कारण पत्रकारिता के कई नामों की तपस्या नेपथ्य में आ गई।
मध्यप्रदेश की पत्रकारिता को जिन द्धिचियों ने हवन में अपने खून पसीने की आहुति दी, उनमे से कई अब स्मृति शेष हैं,जो मौजूद हैं वे इस फिजां में घर में रहना ही बेहतर समझते हैं। पत्रकारिता में उनके अवदान की इस दुर्दशा पर क्षोभ व्यक्त करने के लिए भी शब्द नहीं है। उन्हें प्रणाम....! स्मृति शेष स्व. श्री धन्नालाल शाह, स्व. श्री नितिन मेहता, स्व.श्री त्रिभुवन यादव, स्व.श्री प्रेम बाबू श्रीवास्तव, स्व. श्री इश्तियाक आरिफ,स्व. श्री डी वी लेले स्व. श्री सूर्य नारायण शर्मा स्व.श्री वी टी जोशी,यशवंत अरगरे के सम्पर्क-स्वेद पत्रकार भवन के मलबे में दबे हैं। इस दशा से उबारने की कोई ठोस पहल होती नजर नहीं आ रही है। अगर पत्रकार भवन के उद्देश्यों पर सही ढंग से अमल होता तो ये दुर्दशा नही देखना होती।
इतिहास जब कभी राणा प्रताप के संघर्ष को याद करता है तो भामाशाह बरबस याद आते हैं, और जब पत्रकार भवन के सामने से गुजरते हैं,तो दूसरे ‘शाह’ धन्नालाल याद आते हैं, जिनका योगदान इस भवन के लिए भामाशाह से भी अधिक रहा है। भामाशाह ने तो अपनी तिजोरी का मुंह राणा प्रताप के लिए खोला था। शाह साहब ने तो कई दिनों भोजन बाद में किया, पहले पत्रकार भवन के लिए 5 लोगों से चंदा लिया। इस पूरी टीम के सपने थे, पत्रकार भवन में एक बड़ा पुस्तकालय,पत्रकारिता के व्यवसायिक प्रशिक्षण हेतु एक स्कूल, बीमारी या अन्य कारणों से अभावग्रस्त पत्रकारों को सम्बल। अफ़सोस उनके बाद हम सब अति सज्जनतावश यह सब नहीं कर पाए।
थोडा इतिहास। सन् 1969 में वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल और नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट नाम की पत्रकारों की प्रतिष्ठित यूनियन थी। संख्या बल आई ऍफ़ डब्लू जे के साथ ज्यादा था। इसी कारण इसी संस्था को म.प्र. सरकार ने कलेक्टर सीहोर के माध्यम से राजधानी परियोजना के मालवीय नगर स्थित प्लाट नम्बर एक पर 27007 वर्ग फिट भूमि इस शर्त पर आवंटित की थी, कि यूनियन पत्रकारों के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक उत्थान व गतिविधियों के लिये इमारत का निर्माण कर उसका सुचारू संचालन करेगी। उस समय मुख्यमंत्री पं श्यामाचरण शुक्ल थे। फिर कई मुख्यमंत्री आये और चले गये,हमारी बिरादरी को खांचे में बाँट गये।
उस काल में दिल्ली में सक्रिय आईएफडब्लूजे विभिन्न प्रान्तों में पत्रकार संगठनों को सम्बद्धता दे रहा था। इसके अध्यक्ष उस समय स्व.रामाराव थे। आईएफडब्लूजे ने वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल को सम्बद्धता दी थी। इमारत बनने के बाद इसकी विशालता व भव्यता के चर्चे देश में होने लगे। तभी किसी की नजर लग गई और भोपाल की पत्रकारिता का मरकज परहेज का बायस हो गया। कालान्तर में श्रमजीवी पत्रकार टूटने लगा और अब मौजूदा कई टुकड़ों को जोड़ने के बाद भी वैसी शक्ल बनना अब नामुमकिन है। वैसे इस कहानी में और भी पेंचोंखम हैं, उन्हें छोड़िये।
आगे क्या हो, यह महत्वपूर्ण है। सारी कहानी किस्से में जनसंपर्क विभाग की भूमिका महत्वपूर्ण थी, है और रहेगी। जमीन सरकारी थी, है और रहेगी, इससे किसी को गुरेज़ नहीं। अब जनसंपर्क विभाग इसे एक आधुनिक मीडिया सेंटर के रूप में विकसित करेगा। सरकार के उद्देश्य पर कोई संदेह नहीं, पर सरकार का आश्वासन प्रवाहमान बना रहे और संस्था की खोई साख लौटे और इसके साथ कोशिश हो सच्चे कलमवीरों की साख और धाख वापिसी की।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।