निरंतर विभिन्न खांचों में बंटते जा रहे भारतीय समाज के स्कूली बच्चों के भविष्य एक प्रश्न चिन्ह बनकर उभर रहा है खासकर चिंता ग्रामीण इलाकों के सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चों के भविष्य को लेकर जिन्हें अब ऑनलाइन शिक्षा उपलब्ध कराना संभव नहीं है| इन बच्चों के साथ वैसे भी स्कूल के नाम पर अब तक मजाक ही तो होता रहा है |पहले स्कूल, शिक्षक और पाठ्यक्रम की गुणवता के कष्ट थे अब बिजली और इंटरनेट की अनुपलब्धता है | लॉक डाउन के कारण सरकारी स्कूलों में मौजूद कुछ प्रतिशत शिक्षक और छात्र को डिजिटल तकनीक के माध्यम से जोड़ना आवश्यक है| अधिकांश शिक्षक कोरोना सर्वे में लगे है, जो स्कूल आते हैं, उनमें से आधे से ज्यादा शिक्षण की यह दूर से बैठ कर संचालित की जा रही व्यवस्था से वाकिफ नहीं है, और भी कई तरह की चुनौतियां हैं सब है इंटरनेट का विस्तार नहीं है|
दूसरी तरफ शहरों के मध्यम वर्ग की वे संतानें हैं, जिनके पालक कुछ भी करके कम्प्यूटर मोबाईल इंटरनेट सब जुटाने के बाद भारी फीस देकर हलकान हुए जा रहे हैं |श्रेष्ठि वर्ग की संतानें इस सब से मुक्त विदेश के किसी नाम –अनाम विश्वविद्यालय से डिग्री की आस संजोये हुए हैं |ऑनलाइन पढ़ाई कराने वाली एक बड़ी संस्था ने भारत के छोटे-बडे़ शहरों में करीब पांच हजार छात्रों के माता-पिता के बीच सर्वे किया है, जिसमें पता चला कि उनमें से ८५ प्रतिशत को चिंता सता रही है कि कोरोना के चक्कर में उनके बच्चों का भविष्य बिगड़ रहा है। बच्चे जिंदगी की दौड़ में कहीं पिछड़ न जाएं और कहीं उनका साल खराब न हो जाए। जाहिर है, सरकारों को भी इस चिंता की खबर है। इसीलिए सीबीएसई व आईसीएसई की बची हुई परीक्षाएं रद्द कर दी गई हैं। यह ऐलान भी आ गया है कि कॉलेजों और प्रोफेशनल कोर्सेज में भी फाइनल एग्जाम नहीं होंगे।
यहाँ सवाल स्कूल या कॉलेज में अगली क्लास तक का नहीं, बल्कि जिंदगी के अगले मुकाम तक का सफर तय करना है। जो इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ, मैनेजमेंट या किसी प्रतियोगिता की तैयारी में जुटे हैं और जो देश-दुनिया के नामी-गिरामी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की कसरत में जुटे हैं।नामी-गिरामी से याद आया, अभी पिछले दिनों देश के शिक्षण संस्थानों की रैंकिंग आई थी, जिसकी चर्चा पढ़ने-लिखने वाले परिवारों में जारी है। हालांकि, करीब ५५०० संस्थानों ने ही उस रैंकिंग में शामिल होने के लिए आवेदन किया था, जबकि हमारे देश में ४५ हजार डिग्री कॉलेज, १००- से ज्यादा विश्वविद्यालय और १५०० अन्य उच्च शिक्षण संस्थान हैं।
अभी भी भारत में शिक्षण का एक बड़ा हिस्सा रैंकिंग से बाहर है। भारत के लाखों बच्चे अच्छी रैंकिंग वाले संस्थानों में भर्ती के लिए जी जान लगाए रहते हैं, वहीं दुनिया की नजर में ये कोई महान संस्थान नहीं हैं।
जहां कोरोना के इस समय में हर स्तर की पढ़ाई और उसके विषय प्रभावित होंगे, वहीं एक बड़ा असर प्रवेश व अन्य शुल्कों पर भी पडे़गा। भारत के कुछ टॉप या निजी संस्थानों में औसतन अलग-अलग कोर्स के लिए वर्ष में दो लाख से आठ लाख रुपये तक देने पड़ते हैं। वहीं अमेरिका में पढ़ाई का खर्च साल में पच्चीस-तीस लाख रुपये से कम नहीं पड़ता। फिर भी लोग हिम्मत जुटाते हैं, इसकी एक वजह बैंकों से कर्ज मिलना भी है, अब तो बैंकों को भी नए सिरे से सोचना होगा। अनेक बाधाएं खड़ी हो गई हैं।
अब हर इंसान खर्च करने से पहले भी दस बार सोच रहा है। बच्चों को भी लग रहा है कि इतना खर्च करके पढ़ाई कर लें, पर अर्थव्यवस्थाओं का जो हाल है, उसमें नौकरी का ठिकाना नहीं है। यह देश और दुनिया में स्कूल-कॉलेज चलाने वालों और उनकी सरकारों के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुका है। अमेरिका, इंग्लैंड व ऑस्ट्रेलिया की तमाम यूनिवर्सिटी डर रही हैं कि विदेश से आने वाले छात्रों की संख्या बुरी तरह गिरेगी। विदेश में पढ़ने की इच्छा रखने वालों को लुभाने के लिए अनेक योजनाएं आ रही हैं। फीस माफ की जा रही है। ऑनलाइन क्लास शुरू करने की तैयारी है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।