सरकार कुछ मामलों में चुप्पी साध लेती है, और इस चुप्पी के पीछे सरकार का समूचा चरित्र होता है। 19 जुलाई को मध्यप्रदेश सरकार के परिवहन आयुक्त का एकाएक बदला जाना ऐसा ही मामला है, इस मामले में जो वीडियो जारी हुआ है वो उन सारी कहानियों की पुष्टि करता है कि भारत में भ्रष्टाचार के गंदे नाले निरापद कैसे बहते हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा के कुछ विभागों के शीर्ष पर क्यों जाना चाहते हैं ? हर सरकार की भ्रष्टाचार रोकने या [?] की नीति समान क्यों है ? सबसे आखिरी और जरूरी सवाल क्या यह व्यवस्था बदलेगी ?
देश के एक मुख्य सूचना आयुक्त ने अपने निर्णय में सारे राजनीतिक दलों के वित्तीय लेखे जोखे पारदर्शी करने की बात अपने एक निर्णय में कही थी। उनके इस निर्णय के खिलाफ देश के बड़े राजनीतिक दल एक हो गये थे और सर्वोच्च न्यायालय में चले गये थे। उस निर्णय को चुनौती देकर इन दलों ने अपनी अकूत घोषित और अघोषित सम्पत्ति के सार्वजनिक विवरण को छिपा लिया था। राजनीतिक दलों की काली–सफेद सम्पत्ति का निर्माण और रोजमर्रा के खर्चे ऐसे ही कारनामो से चलते हैं,जैसा 18 जुलाई को जारी वीडियो में दिखाया गया है।
मध्यप्रदेश में यह बात आम तौर पर कही जाती है कि दो विभागों के पास सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के खर्चे वहन करने की जिम्मेदारी है। सत्ता में कोई भी रहे उसका योगक्षेम परिवहन विभाग देखेगा और प्रतिपक्ष के हाल-चाल दुरुस्त रखने का काम आबकारी विभाग देखेगा। बाकी विभाग की तुलना में इन दोनों विभागों से बजट बनाये बिना वारे-न्यारे के करने की ज्यादा सहूलियत है। जैसे शराब की बोतल मुद्रित मूल्य से ज्यादा बिकती है वैसे ही परिवहन विभाग के बैरियर नीलाम होते हैं। कम्प्यूटर से गणना के नाम पर कम्प्यूटर को चकमा देने में महारत जैसे कारनामे आम बात है।
परिवहन विभाग की यह कहानी वैसे जग जाहिर है। अब इसका तोड़ निकल आया है, कोई भी एजेंसी इस वीडियो को सत्य साबित नहीं कर पायेगी। इसकी पेंच बंदी हो गई है, यह वीडियो 2016 का बताया जाने लगा है। शाजापुर के सरकारी विश्राम भवन का। वीडियों में दिखने वाले अधिकारी तब उस संभाग में पदस्थ थे। अपराध छिपाने के प्रयास में सब शामिल है, सरकार तबादला कर सकती थी, कर दिया। कुछ दिन बाद यह मामला भी उसी तरह दफन हो जायेगा, जैसे पहले एक परिवहन निरीक्षक लाखों रूपये के साथ भोपाल में गिरफ्तार हुए थे। उस मामले में उस नकदी को न्यायलय में छिपाने में कलाबाजी हुई और सब पाक साफ।
अब यहाँ सवाल नैतिकता का है। राजनीतिक दल अपनी आय के स्रोत उजागर क्यों नहीं करते ? क्या सिर्फ आम नागरिकों से ही कर वसूलने के लिए विभाग बने हैं। कोई इस बात का जवाब देगा कि भारी भरकम सत्तारूढ़ दल और उसके मुकाबले थोड़े कम हल्के प्रतिपक्ष का रोजमर्रा के खर्च कैसे चलता है। सारी आती- जाती और मौजूदा सरकारें भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर इन हरकतों से कब तक आँखे मूंदे रहेगी। व्यवस्था बदलने की बात किससे करे और और कौन करें, कीचड़ के कुछ छींटे कभी-कभी मीडिया के मैदान में आ गिरते हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।