गंभीर अपराध, पुलिस और जमानत / EDITORIAL by Rakesh Dubey

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देश की न्यायिक व्यवस्था में पुलिस का रोल अहम है। कभी- कभार नहीं अक्सर पुलिस राजनीति या सरकार के हाथ का खिलौना दिखाई देती है पुलिस को सरकार से थोड़ा अलग होकर काम करना चाहिए, वरना पुलिस पर बचा-खुचा विश्वास भी समाप्त हो जायेगा अभी अधिकांश प्रकरणों को राजनीतिक ताकत से हल या प्रभावित करने की कोशिश की जाती है, जिससे समस्या सुलझने के बजाय और गंभीर होती जाती है वर्षों से पुलिस सुधार की बात की जा रही है अब सुधार की अभी जरूरत बहुत गम्भीर होती जा रही है| इसी लेतलाली से माफिया पैदा हो रहे हैं और उनके राज लगभग देश के हर प्रदेश में चल रहे हैं गंभीर से गंभीर मामले में अब जमानत आसानी से हो जाती है

किसी भी मामले में जमानत देने से पहले कोर्ट को उसके विविध पक्षों पर बारीकी से विचार करना होता है वह देखता है कि कहीं इससे समाज में कोई भय तो नहीं है| उस व्यक्ति के खिलाफ दर्ज मामले की वजह क्या है? ऐसे तमाम बिंदुओं पर विचार जरूरी भी है अगर किसी आरोपी के खिलाफ कई सारे मामले दर्ज हैं या ऐसा प्रतीत होता है कि वह व्यक्ति भाग जायेगा या कोर्ट को लगता है कि वह गवाहों को तोड़ने की कोशिश करेगा, तो ऐसे मामलों में आरोपी की जमानत नहीं होती है। ताजा चर्चित विकास दुबे जैसे मामलों की बात है कि उसमें पुलिस ने कैसे तथ्य कोर्ट में पेश किये कि वो जमानत पर बाहर घूम रहा था ? सबका मानना है कि अगर उसकी खिलाफत की जाती, तो उसकी की जमानत ही नहीं होती। स्पष्ट है कि सरकार की कहीं न कहीं खामी रही है, जिससे ऐसे मामलों में भी प्रभावी कार्रवाई नहीं हो पाती है 

सिद्धांत: गंभीर आपराधिक मामलों में जमानत नहीं मिलनी चाहिए अगर किसी अपराधी को जमानत मिल गयी, तो जिस ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में जमानत दी, उसकी कार्यवाही पर भी प्रश्नचिह्न लगना चाहिए उच्च न्यायालय या वहां संबंधित न्यायालय जिसे सुपरिंटेडेंट की शक्ति प्राप्त है, इस विषय में प्रश्न पूछना चाहिए कि इस मामले में जमानत किस आधार पर दी गयी ऐसे मामलों में सबसे बड़ी जिम्मेदारी राज्य की बनती है कि वह इस मामले को कोर्ट में किस तरह से ले जाता है दूसरी बात, अगर जमानत हो गयी, तो उन्होंने मामले की निगरानी क्यों नहीं की? प्रोसिक्यूशन ने कोई विरोध क्यों नहीं किया? इससे साबित हो जाता है कि अपराधी का कहीं न कहीं प्रभाव अधिक है

वैसे सर्वोच्च न्यायालय इस बात का संज्ञान लेता है कि राज्यों में होनेवाले अपराधों से सरकारें किस प्रकार निपट रही हैं, उसे राज्यों को निर्देश जारी करने की शक्ति है वैसे अपराध से सख्ती के साथ निपटने और पुलिस की रोजमर्रा कार्रवाई दोनों ही अलग-अलग तरह की बातें हैं एनकाउंटर करना तो बिल्कुल अलग तरह की बात है. पुलिस को सरकार से थोड़ा अलग होकर काम करना चाहिये सुप्रीम कोर्ट पुलिस रिफॉर्म की बात करता है। कोर्ट पुलिस को निर्देश देता है कि एनकाउंटर के मामलों में किस तरह से कार्रवाई की जायेगी अगर पुलिस ने बचाव के अधिकार का इस्तेमाल करके अपराधी को मारा है, तो उस पर भी कोर्ट संज्ञान लेता है और लेना भी चाहिएसुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसे मामलों के लिए बाकायदा दिशा-निर्देश तय किये गये हैं पुलिस इन निर्देशों का उल्लंघन नहीं कर सकती है, पर अक्सर स्थिति विपरीत दिखती है

वैसे भी लॉ एंड ऑर्डर का मतलब होता है- कानून के हिसाब से आप सख्ती रखें, यह नहीं कि शांति बनाने के लिए आपको जहां लगे कि यह व्यक्ति अशांति फैला सकता है, उसे बिना ट्रायल के ही निपटा दें यह कोई राज्य नहीं कर सकता यह कानून और व्यवस्था दोनों के खिलाफ है होना यह चाहिए कि ऐसे मामलों से निपटने के लिए, जहां-जहां अपराधी जमानत पर छूट गये हैं, वहां संज्ञान लेते हुए सरकार को अदालतों में उनकी जमानत के खिलाफ में अर्जी देनी चाहिए यह लापरवाही समाज और सरकार दोनों के लिए गंभीर हो सकती है
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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