मध्यप्रदेश के नागरिकों के सामने बड़ा संकट है, जो जनादेश उनने 5 साल के लिए दिया था उसकी शक्ल बदल गई है। इस शक्ल को बदलने में जो अक्ल लगाई गई, उसके कारण विधानसभा में अध्यक्ष नहीं है। सदन में प्रतिपक्ष का नेता नहीं है। कुर्सी पर काबिज मंत्रियों में से कोई किसी का है तो, किसी के पृष्ठ भाग पर किसी की सील लगी है। इनमें कोई एक ऐसा नहीं है, जिसे नागरिक अपना कह सकें। पहले हर दल में कुछ भीष्म पितामह हुआ करते थे, जिनसे कुछ कहा-सुना जा सकता था। अब तो कब कौन कौरव- पांडव हो जाये और कब कौन सा कर्ण कवच कुंडल दान कर निहत्था हो जाये कहना मुश्किल है। अमृत मंथन की पौराणिक कथा के सन्दर्भ को दूषित कर खुद को विषपायी कहने वालों असली ‘गरल-पान’ तो प्रदेश के नागरिक कर रहे हैं।
कल शपथ ग्रहण के दौरान देश का संविधान याद आया। भारतीय संविधान में मंत्रिमंडल के गठन से जुड़े संविधान के अनुच्छेद 74, 75 और 77 याद आये जो बेहद महत्वपूर्ण है। अनुच्छेद 74 के मुताबिक राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा मंत्रिपरिषद का गठन किया जाता है। अनुच्छेद 74 के मुताबिक एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसके शीर्ष पर प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री होंगे, प्रधानमंत्री /मुख्यमंत्री के सुझाव के आधार पर राष्ट्रपति/ राज्यपाल मंत्रिमंडल पर सहमति देगें| कल कितने नामों पर मुख्यमंत्री सहमत थे ? एक सवाल है। जवाब किसी के पास नहीं, और सबको मालूम है।
सामान्य तौर पर राष्ट्रपति/राज्यपाल को लोकसभा/विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही सरकार बनाने के लिए बुलाना होता है। यदि किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ है [मध्यप्रदेश में यही तो चुनाव का नतीजा था] तो राष्ट्रपति/ राज्यपाल उस व्यक्ति को सरकार बनाने के लिए बुलाता है जिसमें दो या अधिक दलों का समर्थन प्राप्त करने की संभावना होती है और जो इस प्रकार के समर्थन से लोकसभा/विधानसभा में जरूरी बहुमत साबित कर सकता है। संविधान इस बहुमत प्राप्ति की प्रक्रिया पर मौन है, उसमें विधायकों को प्रदेश के बाहर ले जाकर रखने फिर सदन में जैसे तैसे बहुमत बताने की बात तो कतई नहीं है।
इस प्रकार के संविधान इतर समीकरणों से ही तो वे समीकरण बनते हैं, जिससे जन प्रतिनिधि जनता के न होकर किसी एक गिरोह के सदस्य हो जाते हैं और मंत्री पद का लालच उन्हें दरबारों की कोर्निश बजाने को मजबूर कर देता है।
इसकी शिकायत का फोरम विधान सभा नहीं है। विधानसभा प्रजातंत्र में नागरिकों के अधिकारों और अस्मिता और सम्मान की संरक्षक हैं। उसका काम केवल सदन में चर्चा के बाद कानून को पारित करना, कानूनों और नीतियों को लागू करना और बजट के आवंटन पर ही समाप्त नहीं होता है। सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना भी तो उनकी ही जिम्मेदारी है। विधानसभा का काम सरकार द्वारा बनाई उन सभी नीतियों की निगहबानी भी है। जिसका सभी प्रदेशवासियों को लाभ मिले, विशेषकर समाज के वंचित वर्ग के लोगों को। विधानसभा अहर्निश काम करने वाला प्रजातांत्रिक अनुष्ठान है। मध्यप्रदेश विधानसभा महीनों से अध्यक्ष विहीन है, प्रतिपक्ष साबित करने के लिए बनाये गये प्रोटेम स्पीकर अब मंत्री हो गये हैं। स्पीकर रहने के बाद मंत्री बनने के कई उदहारण है, पर पूर्व स्पीकर की गिनती किसी एक गुट के साथ होना क्या उनके पूर्व आचरण पर प्रश्न नहीं कड़ा करता ? ख़ास तौर तब जब वे प्रतिपक्ष की गैर मौजूदगी में एक किसी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त साबित कर आये हों। यहाँ भी सवाल लाभ-हानि का है, सता और प्रतिपक्ष को इससे जो मिलना था मिल। नुकसान में प्रदेश की जनता है जिसके सवाल आसन्न विधानसभासत्र की आस में उस प्रक्रिया में फंसे हैं, जिसकी कमान विधानसभा अध्यक्ष को संचालित करना होती है।
यह प्रदेश के नागरिकों का दुर्भाग्य है यहाँ के सारे नेता मंत्री और मुख्यमंत्री ही बने रहना चाहते हैं। वर्तमान में जो प्रतिपक्ष है उसका भी नेता सदन में कौन है ? अभी तक इसका उत्तर किसीके पास नहीं है। लगता है पिछले चुनाव में जिन्होंने वोट दिया, उनसे कहीं न कहीं चूक हुई, वे मतदाता समझदार थे जिन्होंने “नोटा” किया था।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।