कोरोना ने सबसे बड़ा नुकसान हिंदी भाषा का किया है। हिंदी भाषी राज्यों के अधिकांश बोर्ड ने हिंदी को सबसे सरल मान उसके सारे विद्यार्थियों को पास कर दिया है। भले ही वे इस योग्य हो या नहीं। हिंदी भारत के लगभग 60 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा है और देवनागरी के अनुरूप लिखी जाने वाली मराठी और गुजराती को जोड़ ले तो यह संख्या 75 प्रतिशत हो जाती है। वैश्विक रूप से देखें तो अंग्रेजी, मंदारिन और स्पेनिश के बाद हिंदी दुनियाभर में बोली जाने वाली चौथी सबसे बड़ी भाषा है। इसे राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है। राजभाषा वह भाषा होती है, जिसमें सरकारी कामकाज किया जाता है, लेकिन हम सब जानते हैं कि लुटियंस दिल्ली की भाषा अंग्रेजी है और जो हिंदी भाषी हैं भी, वे अंग्रेजीदां दिखने की पुरजोर कोशिश करते नजर आते हैं।
गुलामी के दौर में अंग्रेजी प्रभु वर्ग की भाषा थी और हिंदी गुलामों की,यह ग्रंथि आज भी देश में बरकरार है। अपनी भाषा को लेकर जो गर्व हमें होना चाहिए, उसकी हम हिंदी भाषियों में बेहद कमी है। अगर आसपास नजर दौड़ाएं, तो हम पायेंगे कि हमारे नेता, लेखक और बुद्धिजीवी हिंदी की दुहाई तो बहुत देते हैं, लेकिन जब बच्चों की पढ़ाई की बात आती है, तो वे अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों को ही चुनते हैं। कई लोग दलील देते मिल जायेंगे कि अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा है, जबकि रूस, जर्मनी, फ्रांस और जापान जैसे देशों ने यह साबित कर दिया है कि अपनी मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान के अध्ययन में कोई कठिनाई नहीं आती है।
हर साल हिंदी दिवस के अवसर पर एक ही तरह की बातें की जाती हैं कि हिंदी ने ये झंडे गाड़े, बस थोड़ी-सी कमी रह गयी है इत्यादि, लेकिन इस मौके पर हिंदी के समक्ष चुनौतियों पर कोई गंभीर विमर्श नहीं होता है। यह चर्चा भी नहीं होती कि सरकारी हिंदी ने हिंदी का कितना नुकसान पहुंचाया है| अगर सरकारी अनुवाद का प्रचार-प्रसार हो जाए, तो हिंदी का बंटाधार होने से कोई नहीं रोक सकता है| रही सही कसर गूगल अनुवाद ने पूरी कर दी है,इसमें अर्थ का अनर्थ होता है। कई संस्थानों में यही प्रमाणिक मान लिया जाता है। किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है| अच्छी शिक्षा के बगैर बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती, अगर शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी, तो विकास की दौड़ में वह देश पीछे छूट जायेगा। राज्यों के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है। शिक्षा के मामले में आज हिंदी पट्टी के राज्यों के मुकाबले दक्षिण के राज्य हमसे आगे हैं।
यही वजह है कि हिंदी पट्टी के छात्र बड़ी संख्या में पढ़ने के लिए दक्षिणी राज्यों में जाते हैं। कारण स्पष्ट है कि हिंदी पट्टी के राज्यों ने ही हिंदी की घोर अनदेखी की है| मौजूदा दौर में बच्चों को पढ़ाना कोई आसान काम नहीं रहा है। बच्चे, शिक्षक और अभिभावक, ये शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं. इनमें से एक भी कड़ी के ढीला पड़ने पर पूरी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है। शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी शिक्षक हैं।
यह सही है कि मौजूदा दौर में यह कार्य दुष्कर होता जा रहा है. परिस्थितियां बदल रही हैं, युवाओं में भारी परिवर्तन आ रहा है. मौजूदा दौर में शिक्षक का छात्रों के साथ पहले जैसा रिश्ता भी नहीं रहा है, पर इतनी बड़ी संख्या में छात्रों का हिंदी में उत्तीर्ण करना इस बात की ओर इशारा करता है कि गुरुओं ने अपना दायित्व सही ढंग से नहीं निभाया है| इस जिम्मेदारी से हिंदी शिक्षक बच नहीं सकते हैं।
बहरहाल, जिस राज्य में बोलचाल व लिखने-पढ़ने की भाषा केवल हिंदी हो, वहां से ऐसी खबर का आना चिंता जगाती है. इस पर सरकार, शिक्षा जगत से जुड़े लोगों और हिंदी के विद्वानों को तत्काल ध्यान देने की जरूरत है, पर ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है| जिस दिन बोर्ड के नतीजे आये, उस दिन जरूर टीवी चैनलों पर न तो यह खबर चली, न ही इस विषय पर कोई गंभीर विमर्श होता नजर आया।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।