प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उम्मीद है कि नई शिक्षा नीति भारत को विकास की ऊंचाई पर पहुंचाएगी। शुभ सोचने में हर्ज क्या है ? यूँ तो अभी सम्पूर्ण नई शिक्षा नीति पढने को सुलभ नहीं है। नई शिक्षा नीति से पहले सबको एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ग्रामीण) 2019 को गौर से पढना चाहिए। वर्ष 2019 की नवीनतम रिपोर्ट कहती है कि “ग्रामीण भारत में कक्षा पांचवीं के केवल 50 प्रतिशत छात्र ही दूसरी कक्षा के पाठ को पढ़ पाने में सक्षम हैं और केवल 28 प्रतिशत बच्चे ही भाग के सवालों को हल कर सकते हैं। घूम–फिर कर आज देश 83 साल बाद इस नतीजे पर पहुंचा है कि “बच्चे अपनी मातृभाषा में बेहतर तरीके से सीख सकते है।”
यह बात ८३ साल पहले १९३७ में हुए शिक्षा के राष्ट्रीय सम्मेलन की संस्तुति है। यह संस्तुति गांधी जी के नेतृत्व में वर्धा में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में की गयी थी। “शिक्षा व कौशल निर्माण के लिए मातृभाषा सीखने का एक अहम माध्यम है।” इसे बुनियादी यानी नयी तालीम कहा गया था। अफ़सोस देश को यह जानने में इतने वर्ष लग गये कि बच्चा अपनी मातृभाषा में बेहतर तरीके से सीख सकता है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि व्यावसायिक शिक्षा स्वरोजगार और रोजगार के क्षेत्र में संभावनाओं को बेहतर बनाती है। उम्मीद है कि गांधीजी और जॉन डेवी के सीखने के सिद्धांत को नये पाठ्यक्रम के शिक्षण में जगह मिलेगी। भाषा ज्ञान और कंप्यूटेशनल स्किल को 10 वर्ष की आयु तक सीखने की जरूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए है कि एनसीइआरटी यह सुनिश्चित करेगा कि 2019, में आये निराशाजनक निष्कर्ष में बदलाव आयेगा।
वैसे नई शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा की संरचना और वित्त व्यवस्था के बारे में कुछ स्पष्ट नहीं है। सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा कोई नयी घोषणा नहीं है। कहने को सबके लिए पहुंच का वादा तो है, लेकिन इसकी संरचना स्पष्ट नहीं है।
अभी तो यह देखने में आया है कि स्कूली शिक्षा में जिन देशों का प्रदर्शन बेहतर है, वहां स्कूल शिक्षा का वित्तपोषण सरकार करती है। यह व्यवस्था सरकार द्वारा संचालित नजदीकी स्कूल में बच्चे का प्रवेश सुनिश्चित करती है। हमारे देश के प्रत्येक बच्चे को यह अधिकार मिले कि उसे अपने निवास के सबसे नजदीकी स्कूल में आसानी से दाखिला मिले। स्कूली शिक्षा अनिवार्य तथा मुफ्त होने के साथ नजदीक और सुलभ होनी चाहिए। नई शिक्षा नीति इस मुद्दे पर स्पष्ट नहीं है। यह चुप्पी व्यावसायिक और लाभ कमानेवाले लालची संस्थानों को बढ़ावा दे सकती है।
राममनोहर लोहिया कहते थे -‘रानी हो या XXXरानी, सबके लिए एक समान शिक्षा हो।’ जब तक लोहिया के इस बात पर अमल नहीं होगा तब तक सतत विकास लक्ष्य अधूरा ही रहेगा. वंचितों के लिए लैंगिक समावेशी निधि और विशेष शिक्षा केवल काल्पनिक ही रह जायेगी। वर्तमान प्रयासों से समता को तय नहीं किया जा सकता।
जहाँ तक संस्कृत का प्रश्न है, संस्कृत को स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक एकमात्र वैकल्पिक भाषा के तौर पर शामिल किये जाने के प्रावधान पर, आज गांधी जी होते तो दुखी होते। हमें यह याद रखना चाहिए कि देश में बड़ी आबादी बरसों से हिंदी-हिंदुस्तानी को समझती और बोलती रही है।
भाषाविदों और विद्वानों को राजनीतीकरण से दूर रखना चाहिए। उच्च शिक्षा में प्रशासनिक संरचना स्पष्ट नहीं है, यह अस्पष्टता राजनीति को मनमानी करने की छूट देती है। वर्ष 2035 तक सकल नामांकन अनुपात ५० प्रतिशत तक तभी बढ़ेगा जब स्कूली शिक्षा की जड़ें मजबूत हों और प्रत्येक स्नातक को महसूस हो कि उसके पास अच्छी आजीविका के लिए पर्याप्त क्षमता और कौशल है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।