कोरोना के दुष्काल में चिकित्सकों और स्वास्थ्य कर्मियों की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, यदा-कदा ऐसी विचलित करने वाली घटनाएं सामने आती हैं, जो चिकित्सा तंत्र से हमारे भरोसे को डिगाती हैं। जैसे अहमदाबाद और केरल के एक निजी अस्पताल में लगी आग में कोविड-19 के मरीजों की दर्दनाक मौत। विडंबना यह है कि ये दोनों आग अस्पताल के आईसीयू वार्ड में लगी। जाहिर है यहां गंभीर रोगी ही भर्ती थे। वे अपना बचाव नहीं कर सके। ऐसी हर घटना कहीं न कहीं मानवीय चूक को ही दर्शाती है।
संक्रमण का भय इतना ज्यादा है कि कोविड मरीजों के पास कोई तीमारदार भी मौजूद नहीं रह सकता। यदि कोई होता तो शायद अग्निकांड के शिकार लोगों में से कुछ की जान बच सकती थी। निस्संदेह आग किसी न किसी की लापरवाही से ही लगी होगी। लगता है समय रहते आग पर काबू पाने और फंसे मरीजों को सुरक्षित बाहर निकालने की कोशिश नहीं हो पायी। निस्संदेह ये घटनाये हृदयविदारक और दुर्घटना है। इससे इतर भी कई बार सरकारी अस्पतालों कुछ ऐसा घटता है जो देवदूतों की उपमा को बदल देता है। भोपाल के हमीदिया अस्पताल का एक ऐसा ही वीडियो वायरल हो रहा है। मध्यप्रदेश के मंदसौर के अस्पताल प्रबन्धन के खिलाफ तो जिलाधीश को एक कमेटी बनाना पड़ी है।
अस्पतालों और विशेष कर सरकारी अस्पतालों में पहुंचे मरीजों को भरोसा होता है कि वे सरकार ,अस्पताल प्रबंधन और चिकित्सकों की टीम की देखरेख में सुरक्षित हैं। ऐसे में यदि आम लोगों का भरोसा डिगता है तो उसे फिर से बहाल करना कठिन होगा।भोपाल के हमीदिया अस्पताल का एक वीडियो चल रहा है। सही है गलत है यह बात बाद की है सवाल यह है आखिर जब राज्यों की राजधानी के बड़े अस्पताल का ये आलम है तो देश के छोटे शहरों, कस्बों और गांवों के अस्पतालों का क्या हाल होगा? ऐसी घटनाओं से सबक लेकर आगे के लिये चाक-चौबंद व्यवस्था करने की जरूरत है ताकि भविष्य में ऐसे हादसों को टाला जा सके। जरूरत इस बात की है कि उन परिस्थितियों का गहराई से अवलोकन किया जाये, जिनमें ऐसे हादसों की संभावनाएं पैदा हो सकती हैं। खासकर ऐसे दौर में जब पूरा देश कोरोना महामारी से जूझ रहा है। छोटी चूक भी बड़ी मुसीबत का सबब बन सकती है।
पंजाब के एक नामी अस्पताल में कोविड-१९ से मरने वाले मरीजों के बैड के नीचे पड़े शवों के चित्र कतिपय समाचारपत्रों में प्रकाशित हुए। ये चित्र विचलित करते हैं। उन मरीजों पर इनका घातक असर पड़ता है जो अस्पताल में उपचार करवा रहे होते हैं। आरोप लगाया जा रहा था कि मरीज संक्रमण से तड़पते रहे और उनकी समय रहते देखभाल नहीं हुई। ऐसे ही खबरें दिल्ली के एक नामी सरकारी अस्पताल से भी आई थीं। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र व राज्य सरकारों को फटकारा था।
लापरवाही की खबरें देश के विभिन्न भागों से गाहे-बगाहे आती रही हैं, जो कोरोना के मरीजों को आतंकित करती हैं। कहीं मरीजों के बीच शवों के पड़े होने की खबरें आयीं। इस पर संवेदनहीन जवाब सामने आए कि हम पहले बीमारों का इलाज करें या शवों को हटायें। कई जगह शवों के बदलने से परिजनों में रोष देखा गया। ऐसे में उच्चस्तर पर कोविड अस्पतालों की निगरानी में तालमेल जरूरी है। निस्संदेह, सरकारी अस्पताल भी इस महामारी के दौर में भारी दबाव में हैं। डॉक्टरों, नर्सों और चिकित्साकर्मियों को खुद भी संक्रमण का खतरा है।
मौजूदा दौर में जब खून के रिश्ते भी अपनों के शव लेने से कतरा रहे हैं उनके दाह संस्कार तक से कन्नी काट रहे हैं, चिकित्साकर्मियों का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता। वस्तुत:इस भयावह रोग ने शरीर के साथ-साथ मन-मस्तिष्क तक पर गहरा आघात किया है। लोग अज्ञात भय से जूझ रहे हैं। रोगी के साथ कोई परिजन रह नहीं सकता। रोग का कारगर उपचार उपलब्ध नहीं है। रोगी को कई तरह के मनोवैज्ञानिक दंशों से भी जूझना पड़ रहा है, जिसके चलते रोग के भय तथा अस्पतालों में एकाकीपन के चलते कई रोगियों ने आत्महत्याएं तक की हैं। ऐसे में मरीजों को उपचार के साथ-साथ पुचकार की भी जरूरत है। जिसके लिये चिकित्सक बिरादरी व नर्सों से संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जा सकती है। जो कई बार नदारद रहता है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।