पैतृक संपत्ति कानून को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के आये ताजे फैसले ने भारतीय समाज के उस वर्ग की चूलें हिला दी है | जो अपने राजा, महाराजा, जागीरदार ठिकानेदार कहते है और अपनी बहिन बेटियों के साथ सम्पत्ति के मामले में अन्याय करते आये हैं | सत्ता और नाम के इस नशे ने हमेशा इन परिवारों में महिलाओं की स्थिति को कमजोर बना कर रखा था | सर्वोच्च न्यायालय के इस ताजे फैसले के बाद पिता की मृत्यु चाहे कभी हुई हो या नहीं हुई हो, बेटियों को पैतृक संपत्ति में उसी तरह का अधिकार मिलेगा, जिस तरह बेटों को मिलता है| इस निर्णय के बाद अब सीधे रास्ते से, इस कानून के तहत बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार दिया गया है|
भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की व्यवस्था में सत्ता के तीन मूल केंद्र हैं, संपत्ति, संतति और सत्ता| ये तीनों ही अधिष्ठान इन बड़े घरानों में पुरुषों के पास केंद्रित थे | अब तक की परिपाटी है बच्चे के जन्म के बाद पिता का ही नाम चलता है, संपत्ति का उत्तराधिकारी बेटे को ही बनाया जाता रहा है| इसी तरह सत्ता भी पुरुषों के हाथ में ही रही है| चाहे वह सामाजिक हो, आर्थिक हो, राजनीतिक हो या धार्मिक| इसी कारण समाज में स्त्रियों का दर्जा दोयम रहा |इसी कारण संपत्ति का जो अधिकार, स्वाभाविक अधिकार के तौर पर बेटियों को मिलना चाहिए था, वह अब तक उन्हें नहीं मिल पाया था|
इसके विपरीत मेघालय की ३० प्रतिशत आबादी वाली गारो जनजाति में मातृसत्तामक प्रथा का चलन है, इनकी आबादी क़रीब ३० लाख है| इनके अलावा १७ लाख आबादी वाली खासी और जैनतिया अनुसूचित जनजाति के परिवारों में भी इस प्रथा का चलन है|हालांकि यह चलन अब बदलाव के दौर से गुजर रहा है क्योंकि कुछ पुरुष अब इस बात को लेकर आवाज उठा रहे हैं कि उत्तराधिकार की यह व्यवस्था लैंगिक भेद पर आधारित है, इसलिए भेदभावपूर्ण है|केरल के नायर समुदाय भी मातृ सत्तात्मक समाज हुआ करता था, जिसे १९२५ में क़ानून के ज़रिए बदला गया था| इसके बाद मेघालय भारत में इकलौती ऐसी जगह बची, जहां मातृ सत्तात्मक परिवारों का चलन है| जो कब तक चलेगा कहना मुश्किल है |
वैसे पैतृक संपत्ति कानून में संशोधन तो पहले ही हो गया था, कानून बन ही गया था, लेकिन ऊँगली पर गिने जाने वाले परिवार हैं जिन्होंने स्वेच्छा से अपनी संपत्ति में बेटियों को उसका अधिकार दिया हैं| इसके लिए अकारण मुकदमेबाजी तक करने से ये परिवार बाज नहीं आये | इसके साथ शादी में खर्च और दहेज देने की बात कहकर बेटियों को उलझा भी दिया | ये ही बातें बाद में बेटियों के गले की फांस भी कई जगह बनी और साबित हुई |
आज भी कई लड़कियां जो अन्यान्य कारणों से शादी के रिश्ते से बाहर निकलना चाहती हैं, लेकिन उनके सामने यह प्रश्न आ जाता है कि वे कहां जायें? यदि कोई लड़की किसी कारण अपना हिस्सा मांग बैठती है तो उसे सबसे बुरी लड़की करार दिया जाता है| मायके से रिश्ता खत्म होने के डर से लड़कियां अपना हिस्सा मांगती ही नहीं हैं| यह सोच खत्म होनी चाहिए, बेटियों को संपत्ति, खासकर पैतृक संपत्ति में बराबर का अधिकार देने को समाज की स्वीकृति मिलनी चाहिए|
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को सचमुच अमल में लाने के लिए अभी कई काम करने होंगे| मां-बाप को बेटियों के दिमाग में यह बात बिठानी होगी कि जो कुछ भी मेरा है, वह तुम्हारा और तुम्हारे भाई दोनों का है| हालांकि, इस निर्णय को सबसे पहले माता-पिता को खुद स्वीकार करना होगा| उन्हें इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि बेटी को शादी करके भेज देंगे और बेटा घर का मालिक बनेगा| बेटियों को अपना अधिकार मांगने में संकोच करने की जगह अपनी जबान खोलनी होगी| उन्हें समझना होगा कि यह उनका अधिकार है| वे अलग से कुछ भी नहीं मांग रही हैं| वैसे जो पैतृक संपत्ति पिता को भी मिली है, उन्होंने अर्जित नहीं की है| उसमें भी बेटी का हक है | एक और बात, पिता-पुत्र दोनों को सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि संपत्ति में बेटियों का भी बराबर का हक है|
एक बात तो एकदम तय है कि इस बदलाव से हमारे सामाजिक ताने-बाने में थोड़ा फर्क आयेगा| परिवर्तन की अपनी कीमत होती है, वह ऐसे नहीं आता है| पुराना उजाड़ने के बाद ही हम कुछ नया बना पाते हैं| इससे यहां भी रिश्तों में थोड़ी दरार तो आयेगी| लेकिन इसमें बहुत ज्यादा सोचने की आवश्यकता नहीं है| यदि इस दरार के पड़ने से समाज में सुधार आता है, तो इस दरार का पड़ना बेहतर है| ये दरार ही बाद में मरहम का काम करेगी| अभी तो मुकदमे बाजी परिवार में बैर ही बढ़ाती रही है | देश में सारे कानून विभागों में मकडजाल में उलझे हैं, कानून तभी फलदायी हो सकेगा जब इसके साथ महिला और बाल विकास विभाग जैसे विभाग सदाशयता बरतें |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।