आज मेरे देश भारत की वर्षगांठ है, केवल रस्म अदायगी के लिए खुश हूँ | बधाई ले रहा हूँ, दे रहा हूँ | अंतर्मन से दुखी हूँ कि ७३ वर्षीय मेरा देश जो विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है, अपने चारों स्तम्भों द्वारा जिस तरह और जिस दिशा में हांका जा रहा है, वो कहीं से गरिमापूर्ण नहीं है | देश का संविधान कहता है न्यायपालिका सर्वोच्च है | न्यायपालिका से पूरे सम्मान के साथ कहता हूँ, कहीं न कहीं कुछ कसर है| माई लार्ड ! मुकदमों का अम्बार है, फैसले भी हो रहे है परन्तु न्याय नहीं मिल रहा है | महामहिम न्यायमूर्ति साहबानो का तर्क है कि न्यायाधीशों के पद खाली पड़े हैं | क्या इसमें भर्ती की प्रक्रिया बदली नहीं जा सकती ?
वैसे न्यायाधीशों की नियुक्ति करने तथा जरूरी संसाधनों की व्यवस्था करना कार्यपालिका और न्यायपालिका के संयुक्त जिम्मे है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गाहे-बगाहे ऐसे मसलों पर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच ठन जाती है तथा ये दोनों संस्थाएं खाली पदों में हो रही देरी के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने लगते है| पूर्व महाधिवक्ता केके वेणुगोपाल ने एक बार सर्वोच्च न्यायालय में बताया था कि उच्च न्यायालय कॉलेजियम से नाम निर्धारित होने के बाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश की नियुक्ति में औसतन ३३७ दिन यानी लगभग एक साल का समय लग जाता है|
नाम आने के बाद सरकार औसतन १२७ दिन में निर्णय लेकर सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम को भेज देती है| इस कॉलेजियम को फैसला लेने में ११९ दिन लगते हैं. फिर तय नाम सरकार के पास जाता है, जो फिर ७३ दिन का समय लगाती है| इसके बाद १८ दिनों के औसत समय में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री अपनी मंजूरी देते हैं|
इससे स्पष्ट है कि पदों को भरने में विलंब का दोष दोनों ही पक्षों का है| यह तथ्य भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए कि सरकार को नाम मिलने के बाद संबद्ध व्यक्ति के बारे में राज्यों से सूचनाएं जुटाने में समय लगता है, इस लिहाज से उसकी ओर से हुई देरी एक हद तक ही तार्किक है| वैसे न्यायपालिका ने अपने स्तर पर प्रक्रिया को दुरुस्त करने की ठोस पहल नहीं की है, जबकि यह समस्या नई नहीं है|
अब व्यवस्थापिका, अर्थात संसद और विधान सभाएं | संसद और विधान सभाओं में सदस्य का निर्वाचन, उसके पहले टिकट की खरीद फरोख्त, धन बल, बाहुबल से जीतना| सरकार जैसे भी हो बनाना चले या न चले तो जन प्रतिनिधि बाज़ार लगाना | देश का भाग्य होता जा रहा है | महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान उदाहरण हैं | ऐसी सरकारें जिन्हें प्रतिपक्ष में बैठने का जनादेश मिला हो वो सरकार में क्यों आना चाहती है ? एक बड़ा सवाल है | इसका उत्तर भ्रष्टाचार के सारे अवसर हमारे ही हाथों में हो | सीबीआई और अन्य जाँच एजेंसियों के दुरूपयोग, खरीदी में वैश्विक कमीशन की बन्दर बाँट राष्ट्र हित से पूर्व की प्राथमिकता होती है | नागनाथ और सांपनाथ मिलकर कई बार दुरभि संधि भी कर लेते है | सुविधा और भत्तों की लूट में सब शामिल | इस श्रेणी के लोग सभी घृणित कुकर्मों में पाए गए हैं | आवाज़ उठाने वाले दुनिया से उठा दिए गये असहाय भारत रोज इन कर्मो को देखता और कोसता है |
अब कार्यपालिका | कार्यपालिका के नाम भारत में सेवकों की लम्बी फ़ौज है | सीमा पर रक्त बहाने वाले जवान से लेकर खेत में पसीना बहाने वाले किसान तक, स्कूल जाने वाले बच्चों से लेकर देश के विकास पथ पर हर जगह अपने को विशेग्य साबित करने वालों ने सबसे ज्यादा अंधेर मचा रखा है | विशेष दक्षता प्राप्त लोगो को यह जमात कभी आगे नहीं आने देती | पूरा जीवन जोंक की तरह सरकारी साधनों का जायज – नजायज शोषण इनका लक्ष्य होता है | सरकारी खजाने का जितना बड़ा भाग ये नौकरी में लेते उससे बड़ा भाग नौकरी के पश्चात जुगाड़ बिठा कर प्राप्त करते हैं | नये लोगो रोजगार के अवसर पर कुंडली मारना इनकी पहली, भ्रष्टाचार दूसरी और भाई भतीजावाद इनकी तीसरी प्राथमिकता होती | राष्ट्र निर्माण से पहले इन्हें खुद का कल्याण नजर आता है |
अब चौथा स्तम्भ मीडिया | वैसे इन दिनों रोज बंद होती पत्र-पत्रिका बाहर किये जा रहे पत्रकार, आम चर्चा के विषय हैं | इंटरनेट के आगमन के बाद से चला आ रहा प्रिंट मीडिया का कष्टप्रद सफर, लॉक डाउन के दौरान अपने चरम की ओर चल पड़ा है| अब इसमें “गोदी मीडिया” जैसा विकार आ गया है | जो सत्य पर पर्दा ही नही डालता पूरा विषय इसके या उसके खांचे में ढाल देता है | अब यह आवश्यक हो गया है कि हम उन सामाजिक प्रक्रियाओं की पड़ताल करें जिनके माध्यम से प्रिंट मीडिया संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ा है। आधुनिकीकरण के साथ जो काल शुरू हुआ, दशकों तक फला-फूला और उसके बाद उसका पराभव होना शुरू हुआ और अब सबसे निचले पायदान पर है तो क्यों?
वैसे भारत के प्रिंट मीडिया के गौरवशाली इतिहास की नींव में स्वतंत्रता संग्राम था | उस समय पत्रकारिता जान की बाज़ी लगाकर की जाती थी| अब कोई व्यापारी जिसका व्यापर कुछ भी हो सकता है कानूनी या गैर कानूनी, मीडिया में आवरण में छिप जाता है | श्रमजीवी पत्रकार और संस्थान बेमौत मर रहे हैं |
७३ वर्ष का बूढ़ा भारत अपने चरमराते प्रजातंत्र की दुर्दशा पर खामोश है | उसका क्रन्दन जिस जिस को सुनाई दे रहा है, वो खुश नहीं हो सकता | क्या आप खुश हैं ?
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।