देश और विश्व में बढ़ते कोरोना के मामलों के सन्दर्भ में आज गाँधी फिर याद आये। 1909 में प्रकाशित ” हिन्द स्वराज“ मुझे समीचीन लगने लगी। एक सदी से भी पहले महात्मा गांधी ने आह्वान किया था कि “हमें आधुनिकता से मोहित नहीं होना चाहिए।” ये कोरोना दुष्काल उत्तर-आधुनिक विश्व के लिए एक चेतावनी है। महात्मा गाँधी ने आधुनिक युग को ‘नौ दिन’ का आश्चर्य कहा था तथा आधुनिकता के सभ्यता होने के दावे को बीमारी की संज्ञा देते हुए हमें इसका शिकार नहीं होने के लिए चेताया था। यह आपका विवेक है कि आप इसे एक भविष्यवाणी माने या नहीं, पर वायरस के संक्रमण और मौतों की बढ़ती संख्या को देखते हुए गांधी जी के विचार के मर्म को जरुर समझें।
मुक्त व्यापार, सस्ती उड़ान और सोशल मीडिया विश्व को जरुर पहले से कहीं अधिक निकट लाया है, लेकिन हम अधिक कमजोर हुए हैं। जैसे-जैसे मानव समाज परिष्कृत होता गया है, वैश्विक संबंधों से जुडाव मशीनों और कंप्यूटरों पर निर्भरता बढ़ी और असुरक्षित होते गये हैं| इसके एक संक्रामक विषाणु आता है और पूरी व्यवस्था को तार-तार कर देता है। ऐसे में आधुनिकता को खोखला नौ दिन का अचंभा कहना गाँधी जी की मसीहाई भविष्यवाणी ही है।
आज यह मारक विषाणु करोड़ों वंचितों के जीवन पर खतरा बना हुआ है, तो इससे उत्तर आधुनिकता की शेखी के साथ इसके आपराधिक अन्याय पर से भी परदा उठ रहा है| भारत में कोविड-१९ का एक और अहम असर हुआ है- शहरी क्षेत्रों से थोपे गये लॉकडाउन की वजह से बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के पलायन ने भूली-बिसरी आबादी की ओर ध्यान तो खींचा है, आजाद भारत के सात दशकों में वंचितों के साथ हुए मानवाधिकार हनन सामने आया है।
अपनी हत्या से कुछ समय पहले गाँधी जी ने कहा था- 'मैं तुम्हे एक जंतर (मंत्र) देता हूं। जब भी तुम्हे संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अपनाओ, जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा,? क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त... तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है।
इस आपातकाल में सरकारें अपने गाल बजाने और पीठ थपथपाने में लगी है ये पंक्तियाँ उनके काम की है | कुर्सी पर काबिज लोगों को सडक पर भटकते दरिद्र नारायण और संघर्षरत, मध्यम वर्ग की ओर ध्यान देना चाहिए जिसके हाथ में रोजगार नहीं है।
हम गलतफहमी में हैं और अक्सर यह दावा करते हैं कि हमने बीमारियों पर जीत हासिल कर ली है, जीने की उम्र में बढ़ोतरी कर ली है, सीमाओं से परे जा चुके हैं और अपनी धरती को बदल चुके हैं। अपनी शेखी में हम यह भूल गये थे कि मनुष्य होना कमजोर होना है। हमने प्रकृति पर जीत हासिल नहीं की है, हम इसलिए जीवित हैं क्योंकि प्रकृति ने हमें इसकी अनुमति दी है।
इस गंभीर समय में गांधी जी के पांच अक्टूबर,१९४५ को जवाहरलाल नेहरू को लिखा पत्र याद आता है “‘यूं तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है, तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है| हो सकता है कि हिंदुस्तान इस पतंगे के समान चक्कर से न बच सके| मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसके मार्फत जगत को बचाने की कोशिश करूं.’ गांधी की चेतावनियां हमें और चिंतित करने के बजाये हमें नयी सोच अपनाने के लिए प्रेरित करनेवाली है , बशर्ते हम माने।
आज जरूरत नैतिकता के साथ समेकित आर्थिकी, राजनीति और तकनीक का उनका मार्ग, जिसमें दरिद्रनारायण का कल्याण मुख्य हो, इस चिंताजनक दौर में हमारे लिए दिशा-निर्देशक हो सकता है।
बीसवीं सदी के शुरू में, जब साम्राज्यवादी आधुनिकता अपने चरम पर थी, गांधी की चेतावनियां अनसुनी कर दी गयीं| नतीजा सबके सामने है| २१ वीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत में जरुर सुनिए , अब जब आधुनिकता खुद ही संकटग्रस्त हो चुकी है?
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।