जैसे ही मैं अपने नाती-पोतों के बारे में सोचता हूँ कि उनकी संपर्क भाषा 20 साल बाद कैसी होगी तो हिंगलिश गुजराती मराठी जैसी किसी भाषा के मिलेजुले अविष्कार और उसके परिणाम सोच कर भ्रमित हो जाता हूँ। भले ही बेटा अच्छी नौकरी में है, उसकी पदस्थापना हर दो साल में देश के किसी भी कौने में हो जाती है, स्कूलों और राज्यों की संपर्क भाषा का प्रभाव उसके बच्चों पर वैसा ही हो रहा है जैसे देश के विभिन्न भागों में रह रहे 14 करोड़ प्रवासी लोगों के बच्चों का हो रहा है। ये सारे लोग मजबूरी में अंग्रेजी को गले लगाने को मजबूर हैं। बेहतर होता नई शिक्षा नीति से पहले राष्ट्र भाषा तय होती।
पता नहीं आप इस बात को कैसे लेते हैं कि मराठी भाषी विद्यालयों में छात्र नहीं आ रहे हैं. क्योंकि अंग्रेजी की मांग बढ़ रही है। नीति नियंताओं में से किसी ने नहीं सोचा कि १४ करोड़ प्रवासी श्रमिकों की संतानों को उनकी मातृभाषा में कैसे पढ़ाया जाएगा? दिल्ली, बेंगलूरु और मुंबई जैसे शहरों में आधी से अधिक आबादी ऐसे लोगों की है जिनकी मातृभाषा हिंदी, कन्नड़ या मराठी नहीं है। ऐसे में मातृभाषा को लेकर सपाट दलील जटिल हो सकती है। दिल्ली को अपने विद्यालयों में कितनी मातृभाषाएं पढ़ानी चाहिए: बांग्ला, मराठी, तमिल, गुजराती...? हिंदी और पंजाबी तो हैं ही। उर्दू को भी न भूलें। आंध्र प्रदेश सरकार ने शायद अपने विद्यालयों में शिक्षण का प्राथमिक माध्यम अंग्रेजी रखकर गलती की हो जबकि जम्मू कश्मीर बहुत पहले ऐसा कर चुका था।
इस नई नीति में शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल कहते है कि 'एक ऐसी शिक्षा नीति की आवश्यकता है जिसमें इतना लचीलापन हो कि वह बदलती परिस्थितियों के साथ ढल सके। इसमें प्रयोगधर्मिता और नवाचार के महत्त्व को रेखांकित किया जाए...इस समय इकलौती सबसे जरूरी बात है मौजूदा व्यवस्था की जड़ता से निजात।' इसके अलावा इस बात पर भी जोर दिया गया है कि 'कार्यानुभव (जिसमें भौतिक श्रम, उत्पादन अनुभव आदि शामिल हों) और सामाजिक सेवाओं को सभी स्तरों पर सामान्य शिक्षण का अनिवार्य अंग बनाया जाए।' सबसे आखिर में कहा गया कि 'नैतिक शिक्षा और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को शामिल करने पर जोर दिया जाए।'
वस्तुत: ये रमेश पोखरियाल के शब्द नही हैं बल्कि ये बातें डीएस कोठारी ने सन १९६६ में उस वक्त लिखी थीं जब वह तत्कालीन शिक्षा मंत्री को अपनी अध्यक्षता वाले शिक्षा आयोग की रिपोर्ट सौंप रहे थे। तब आयोग की १०+२ शिक्षा पद्धति की अनुशंसा स्वीकार की गई लेकिन दसवीं के बाद के दो वर्षों में जहां व्यावसायिक शिक्षण की शुरुआत होनी थी, वहां व्यवहार में कुछ और होने लगा। यही हश्र व्यवस्थागत जड़ता से निजात पाने जैसी अन्य बातों का भी हुआ।
यह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति तो , कोठारी आयोग की रिपोर्ट से भी अधिक महत्त्वाकांक्षी है। इसमें कई सकारात्मक बातें शामिल हैं। मसलन शुरुआती शिक्षण में मातृभाषा पर जोर, विद्यालयीन शिक्षा से पहले की पढ़ाई को प्रमुख शैक्षणिक व्यवस्था में शामिल करना और पाठ्यक्रम के ढांचे में लचीलापन। इनकी सफलता ३० से अधिक राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की प्रतिक्रिया पर निर्भर है। यह इस बात पर भी निर्भर होगा कि १२ लाख से अधिक आंगनवाडिय़ों से नए ढंग से कैसे काम लिया जाता है और १५ लाख विद्यालय इसे कैसे अपनाते हैं। बहरहाल जब किसी नीतिगत दस्तावेज में समग्रता और विविध विषयों जैसे शब्दों की भरमार है तो आशंका पैदा होती है।
उदाहरण के लिए अंग्रेजी के प्रश्न पर विचार करें। क्या उसकी परिणति भी फ्रेंच जैसी होगी वैसी होगी जैसी लातिन अमेरिका में स्पेनिश या पुर्तगीज हैं? यानी विजेताओं की भाषा जो ९० प्रतिशत स्थानीय लोगों की भाषा बन गई। शायद दोनों में से कोई स्थिति न बने। भारत की स्थानीय भाषाओं का हश्र, गरानी और आयमारा जैसी भाषाओं की तरह नहीं होगा जो अब दक्षिण और मध्य अमेरिका के एक छोटे हिस्से में बोली जाती हैं। इसी तरह अंग्रेजी भारत के विद्यालयों में बतौर माध्यम सबसे तेजी से बढ़ती भाषा है। कुल विद्यालयों के छठे हिस्से में अंग्रेजी भाषा में पढ़ाई होती है (इसके आगे केवल हिंदी है जो आधे विद्यालयों का शिक्षण माध्यम है)। भारत ऐसे में क्या करेगा ?कोई समझने- बताने को तैयार नहीं |
सच तो यह है कि अंग्रेजी की स्वीकार्यता तो नहीं हिंगलिश की स्वीकार्यता मातृभाषा से अधिक होती जा रही है। बतौर भाषा अंग्रेजी की आकांक्षा अब केवल औपनिवेशिक इतिहास से संचालित नहीं है। वह तो तीन पीढ़ी पुरानी बात हुई। यह कभी अधिकांश घरों में बोली जाने वाली या राजनीति की प्राथमिक भाषा नहीं बन पाएगी। यह बात ध्यान रहे कि देश के १० सर्वाधिक लोकप्रिय अखबारों में से केवल एक अंग्रेजी में छपता है। टेलीविजन समाचार और मनोरंजन मीडिया में अंग्रेजी की हिस्सेदारी भी काफी कम है, परंतु अंग्रेजी कॉर्पोरेट और वित्तीय जगत तथा बड़ी अदालतों में अपने स्थान पर कायम रहेगी। निकट भविष्य में यह दो आधिकारिक भाषाओं में भी शुमार रहेगी। दुःख यह है कि भारतीय ही भारत की राष्ट्र भाषा का बारे में नहीं सोच रहे हैं |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।