देश का संविधान, महात्मा गाँधी और अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक आत्म निर्भरता की बात कह रहे हैं | आत्मनिर्भरता आत्मनिर्णय के बिना संभव नहीं है| किसी के अधीन रहते हुए कोई आत्मनिर्भर नहीं बन सकता है| स्वाधीनता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने स्वशासन की बात करते हए अंतिम जन की मुक्ति की बात की| उसका आधार उन्होंने ग्राम पंचायतों के स्वशासन को बताया था| तब यह शासन के विकेंद्रीकरण नहीं, बल्कि हर नागरिक को आत्मनिर्णय का अधिकार दिये जाने का विचार था| वर्तमान, आत्मनिर्भरता पर चल रही बहस और सरकार के प्रयोग का आधार आर्थिक है| इसकी सम्पूर्णता सामाजिक और सामूहिक रास्तों से ही पूरी हो सकती है|
चाहे वैश्विक सन्दर्भ लें एवं या भारतीय सन्दर्भ सभी में ग्रामसभा की महत्ता बनी हुई है| अनुसूचित एवं गैर-अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा की स्थितियां भी अलग-अलग हैं| गैर-अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा सीधे-सीधे पंचायत के ढांचे के अंतर्गत है| यहां संसदीय राजनीति की सारी गड़बड़ियां मौजूद हैं| इसके विपरीत संविधान की पांचवीं एवं छठी अनुसूची के क्षेत्रों यानी आदिवासी क्षेत्रों में ग्रामसभा का स्वरूप अलग है| अलग-अलग नियमों में इनका स्वभाव अलग है| पीइएसए अधिनियम ने इसे और भी विस्तार दिया है| यहां ग्रामसभा का स्वरूप पारंपरिक है और स्वभाव सामूहिक व स्वायत्त है| अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा को निर्णय लेने की संस्था के रूप में गठित किया गया है, न कि ऊपर से प्रेषित शासकीय आदेश का अनुकरण करने के लिए|
इन क्षेत्रों में ग्रामसभा को स्थानीय स्तर पर जमीन की बंदोबस्ती, हाट की व्यवस्था, छोटे लघु वनोपज एवं खनन संबंधी अधिकार दिये गये हैं| यहां तक कि विकास संबंधी परियोजनाओं के लिए भी ग्रामसभा से अनापत्ति प्रमाणपत्र हासिल करना अनिवार्य है| इन संवैधानिक स्थितियों के आलोक में आदिवासी क्षेत्रों में ग्रामसभा द्वारा स्थानीय उत्पादकता को बढ़ावा दिया जा सकता है| अब तक ग्रामसभा केवल ऊपर से प्रस्तावित योजनाओं का ही अनुमोदन करती आ रही हैं | उसकी अपनी उत्पादकता का कोई पृथक आकलन नहीं होता है| परिणाम यह है कि ग्रामसभाओं का न अपना कोई फंड है और न ही कोई बजट| सब कुछ नौकरशाहों और सरकारों की दया पर आश्रित है| ऐसे में आत्मनिर्भरता कैसे बढ़ेगी?
कोरोना काल में सरकारें मनरेगा आदि योजनाओं से ही ग्रामीण अर्थव्यस्था से जुड़ रही हैं| मनरेगा और दूसरी योजनाएं स्थानीय स्तर पर कोई उत्पादन नहीं कर रही हैं| इन परियोजनाओं में सरकारें फंड तो उपलब्ध करा रही हैं, लेकिन ग्रामसभा अपने लिये कोई फंड सृजित नहीं कर पा रही हैं|
जरूरी है स्थानीय उत्पादों की पहचान करना, उत्पादन के नये तरीके विकसित करना और उन्हें बाजार उपलब्ध कराना| इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वन उपज सहित, खाद्य सामग्री, कला और शिल्प का उत्पादन होता है, साथ ही कच्चा माल निकलता है| उदाहरण के लिए खाद्य एवं खाद्य प्रसंस्करण से जुड़े उद्योगों को ही देखें, तो चॉकलेट उद्योग का जो अंतरराष्ट्रीय बाजार है, उसके लिए कच्चा माल कहां से आता है? निस्संदेह इन्हीं क्षेत्रों से, फिर सवाल खड़ा होता है कि यहां उत्पादित कच्चा माल उन बाजारों तक कैसे पहुंचता है?
जी! हाँ, यह माल बिचौलियों द्वारा ही बाजार तक पहुंचता है| इसी तरह इन क्षेत्रों से जो शिल्प तैयार होते हैं, बाजार में उनकी अच्छी मांग है| वैश्विक दुनिया में ‘ग्लोबल’ और ‘देशज’ दोनों होने की चाह ने इस मांग को पैदा की है, लेकिन हमारे पास शिल्प मेला को छोड़ कर दूसरा कोई विकल्प नहीं है| ये सामान्य उदाहरण हैं| जब हम शोध के लिए जमीन पर उतरेंगे, तो पायेंगे कि सैकड़ों ऐसे सामूहिक उत्पाद हैं, जो बिचौलियों के लिए छोड़ दिये गये हैं|
आत्मनिर्भरता की राह में दो बड़ी चुनौतियां हैं| ब्रांड की चमक और बड़ा पूंजी निवेश| इन के सामने उन्हें जनता की चीजें बहुत मामूली लगती हैं, जबकि, यही आत्मनिर्भरता की बुनियाद हैं|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।