अंग्रेजी हुकूमत की एक विशेषता थी कि वो अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को बर्दाश्त ही नहीं कर पाते थे। वे चाहते थे कि भारत "अंग्रेजी हुकूमत" से तो आजाद हो लेकिन उनके काम करने के तरीकों से नहीं। यही कारण है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी "सरकारें" अपनी आलोचना सुनना ही नहीं चाहती हैं। सरकारी कर्मचारी/अधिकारी आज भी सिर्फ "यस बॉस" का पुतला बनकर रह गया है।
संविधान द्वारा प्रदत्त "मूलभूत अधिकारों" में शामिल "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार" आखिर संविधान के किस अनुच्छेद से वापस लिया गया है, यह ना कोई संविधान विशेषज्ञ बताते हैं और ना ही न्यायालय। हर बात एक "कॉन्ट्रैक्ट" पर टिकी होती है जिसे हर बेरोजगार व्यक्ति ना चाहते हुए भी भरता है कि वो "किसी राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं हो सकता है।"
हालांकि यह बात केंद्रीय विश्वविद्यालयों पर पूरी तरह से लागू नहीं होती है। तो क्या यह कहना सही होगा कि केंद्र की सरकार राज्य की सरकारों की तुलना में ज्यादा लिबरल हैं? असल में सरकार में बैठे लोग "दरबारी व्यक्ति" को ही ज्यादा पसंद करते हैं। वे नहीं चाहते कि सरकारी कर्मचारी स्वयं की बुद्धि का उपयोग करें। यही कारण है कि हम रिसर्च एंड डेवलपमेंट में भी बाकि राष्ट्रों से बहुत पीछे हैं।
अतः सरकार को राष्ट्र की प्रगति के लिए सरकारी कर्मचारियों को राजनीतिक स्वतंत्रता देनी चाहिए वैसे भी यदि वो आलोचना भी करेंगे तो उससे जनता की ही भलाई होगी।
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