डॉ. प्रवेश सिंह भदौरिया। 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में आयी भीषण तबाही से सरकारों को अपने शहरी बसाहट की रणनीति पर विचार करने की आवश्यकता थी लेकिन इसके विपरीत सरकारें ना केवल सोयीं रहीं बल्कि स्मार्ट सिटी के नाम पर जनता की कमर तोड़ चुके टैक्स से प्राप्त रुपये को बर्बाद करती रहीं।
स्मार्ट सिटी का मतलब किसी भी ऐतिहासिक शहर की बसाहट को "न्यूयॉर्क सरीखा मेकअप" करके बदलना नहीं होना चाहिए। आज हर शहर में पेड़-पौधों को भी जिस तरीके से टाइल्स से पैक कर दिया जा रहा है, पानी को जाने के लिए कच्ची जमीन भी नहीं मिल रही है उससे बाढ़ जैसी स्थिति होना स्वाभाविक है। समुद्र तटीय शहरों में बाढ़ जैसे हालात बनना प्राकृतिक घटना हो सकती है लेकिन मध्यप्रदेश जैसे सुरक्षित प्रदेश में जरा सी बारिश से बाढ़ जैसे हालात बनना एक विशुद्ध मानवजनित घटना है।
प्रकृति समय-समय पर मनुष्यों को एहसास कराती रहती है कि उससे छेड़छाड़ बहुत नुकसानदायक हो सकता है। भूगोल विषय की जानकारी रखने वाले समझते होगे कि समुद्र में भी नमक और पानी का संतुलन बना रहता है जिससे हल्की सी छेड़छाड़ भी समुद्र को रौद्र रूप करने पर मजबूर कर देती है। फिर आजकल तो स्मार्ट सिटी के नाम पर नदियों के बहाव को ही बदल दिया गया है, उनके तटों को शोपीस पत्थरों से कैद कर दिया गया है। नाले, सीवर पर बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी कर दी गयी हैं।
किसी भी क्षेत्र में बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न क्यों हुई इसकी जिम्मेदारी तय होना चाहिए वो जिन्हें हम चुनते हैं, वो जिन्हें हम टैक्स देते हैं तथा वो जो हमारे लिए नियम बनाते हैं, ही सही मायने में मानवजनित आपदाओं के लिए जिम्मेदार हैं।
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