हम भारतवासी जिस हिमालय पर नाज़ करते आ रहे हैं, उस पर आसन्न संकट से अब हमें सावधान हो जाना चाहिए | हम अगर नहीं चेते तो भारत के साथ विश्व को भारी क्षति होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता | बेंगलुरु स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिक अनिल वी कुलकर्णी का एक शोध पात्र हैं जिसमे कहा गया है कि हिमालय के ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं, वह चिंतनीय है। हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलाव की दर में १९८४ के बाद से अबतक अभूतपूर्व बढ़ोतरी दर्ज की गई है, वह खतरनाक संकेत है।
शोध पत्र में कहा गया है कि हिमालय के चंद्रा बेसिन के इन ग्लेश्यिरों के पिघलने की यही रफ्तार जारी रही, तो हमारी प्रमुख नदियों के सूखने का खतरा बढ़ जाएगा और नदियों के बिना इस भूभाग में मानव अस्तित्व की कल्पना बेमानी होगी। वैज्ञानिक कुलकर्णी का यह शोध पत्र “एनल्ज ऑफ ग्लेश्यिोलॉजी” में प्रकाशित हुआ है| शोध पत्र में कहा गया है कि “ग्लेश्यिरों का पिघलना इसी तरह जारी रहा, तो झेलम, चेनाब, व्यास, रावी, सतलुज, सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों का अस्तित्व मिट जाएगा। हिमालयी क्षेत्र की नदियों की जलधाराओं की क्षीण होती स्थिति इस चेतावनी की जीती-जागती मिसाल है।“ इस सारे क्षरण में मानवीय करतूतों की अहम भूमिका है|
मानवीय जरूरतों का जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि में निरंतर हो रहे योगदान को नकारा नहीं जा सकता। ग्लेश्यिरों के पिघलने से हिमालयी क्षेत्र में मिलने वाली शंखपुष्पी, जटामासी, पृष्पवर्णी, गिलोय, सर्पगंधा, पुतली, अनीस, जंबू, उतीस, भोजपत्र, फर्न, गेली, तुमड़ी, वनपलास, कुनेर, टाकिल, पाम, तानसेन, अमार, गौंत, गेठी, चमखड़िक और विजासाल जैसी प्रजातियों और जीवों की चिरू जैसी असंख्य प्रजातियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगता जा रहा है। यदि हम अब भी नहीं जागे, तो असंख्य प्रजातियां इतिहास बन कर रह जाएंगी। यदि संयुक्त राष्ट्र के तथ्य पत्रों के तथ्यों को स्वीकार करें , तो अगले १०० वर्ष में २० प्रतिशत हिमालयी जैव प्रजातियां सदा-सदा के लिए विलुप्त हो जाएंगी। वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और समाज विज्ञानी अब मानने लगे हैं कि हिमालय की सुरक्षा के लिए सरकार को उस क्षेत्र में जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए पर्वतीय क्षेत्र के विकास के वर्तमान मॉडल को बदलना होगा।इससे कम में अब गुजारा संभव नहीं है |
हिमालय के हिमालयी संकट का प्रमुख कारण इस समूचे क्षेत्र में विकास के नाम पर अंधाधुंध बन रहे अनगिनत बांध, पर्यटन के नाम पर हिमालय को चीरकर बनाई जा रही ऑल वैदर रोड और उससे जुड़ी सड़कें हैं। हमारे नीति-नियंताओं ने कभी इसके दुष्परिणामों के बारे में सोचा तक नहीं, जबकि दुनिया के दूसरे देश अपने यहां से धीरे-धीरे बांधों की संख्या को को कम करते जा रहे हैं। सवाल यह है कि यदि यह सिलसिला इसी तरह जारी रहा, तो इस पूरे हिमालयी क्षेत्र का पर्यावरण कैसे बचेगा? देश की करीब ६५ प्रतिशत आबादी का आधार हिमालय ही है। यदि हिमालय की पारिस्थितिकी प्रभावित होती है, तो देश प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। इसीलिए सरकार को बांधों के विस्तार की नीति बदलनी होगी और पर्यटन के नाम पर पहाड़ों के विनाश को भी रोकना होगा। बांधों से नदियां तो सूखती ही हैं, इसके खतरों से निपटना भी आसान नहीं होता। यदि एक बार नदियां सूखने लगती हैं, तो फिर वे हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी। पहाड़ जो हमारी हरित संपदा और पारिस्थितिकी में अहम भूमिका निभाते हैं, अगर नहीं होंगे, तो हमारा वर्षा चक्र प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। भारत जैसे देश में वर्षा चक्र का प्रभावित होना एक बड़ा संकट हे | हमारी सारी खेती और उससे जुड़ा जनजीवन खतरे में आ सकता है | इसका दुष्प्रभाव देश की आर्थिकी पर होगा इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता |
देश की वर्तमान नीति अत्यधिक दोहन की है क्षेत्र कोई भी हो |वर्तमान के अनुसार, नदी मात्र जल की बहती धारा है और पर्यटन आर्थिक लाभ का साधन। योजनाकारों ने हिमालय से निकलने वाली नदियों को बिजली पैदा करने का स्रोत मात्र मान लिया है। मानवीय स्वार्थ हिमालय से भी बड़े हो गये है। स्वार्थी प्रवृत्ति ने ही हिमालय को खतरे में डाल दिया है। इसी सोच के चलते हिमालय के अंग-भंग होने का सिलसिला और उसकी तबाही जारी है। हमे यह नहीं भूलना चहिये कि यह पूरा क्षेत्र भूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील है। यहां निर्माण, विस्फोट, सुरंग, सड़क का जाल बिछने से पहाड़ तो खंड-खंड होते ही हैं, वहां रहने वालों के घर भी तबाह होते हैं। समग्र समावेशी विकास नीति बनाए बिना हिमालय को बचाना मुश्किल है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।