भले ही लॉक डाउन खुल गया हो| जन जीवन पटरी पर आ रहा है, इसका प्रचार हो रहा हो, पर एक अजीब सा अवसाद समाज के कामकाजी और मध्यम वर्ग पैठता जा रहा है |मनोवैज्ञानिक इसे अवसाद की पहली सीढ़ी बता रहे हैं, पर इसके गंभीर होने की आशंका से भी इंकार नहीं कर रहे हैं |यह अवसाद बच्चों से लेकर बूढों तक में है | शहर में बसने वाला मध्यम वर्ग, और वे लोग जिनके इस दौरान काम धंधे चौपट हो गये हैं, या जो बेरोजगार हो गये और ज्यादा निराश दिखाई दे रहे है |
मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिको के पास अधिक संख्या में वे रोगी आ रहे हैं, जो जीवन से निराश हो कर अब जीवन के अंत की बात करने लगते हैं | जीवन का प्रकृति द्वारा अंत या नैराश्य के कारण आत्महत्या जैसी बात करने वालों को के लिए विभिन्न परामर्श और दवा की सलाह भी देने की जानकारियां मिल रही है | आत्म हत्या का सोच ही उसके क्रियान्वयन की पहली सीढ़ी होती है, जिसे समय अगर उचित परामर्श और मार्गदर्शन न मिले तो दुर्घटना से इंकार नहीं किया जा सकता| यह राय मनोवैज्ञानिको की यूँ ही नहीं है |
आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर चार मिनट में एक आत्महत्या होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मानें, तो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में सबसे ज्यादा खुदकुशी भारत में ही होती है। यहां आत्महत्या दर प्रति एक लाख पर १६.५ है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि वर्ष २०१६ में (अद्यतन रिपोर्ट) दुनिया भर में आत्महत्या के कुल मामलों में भारत में महिलाओं की आत्महत्या दर ३७ व पुरुषों की २५ प्रतिशत थी। कोरोना काल से उपजे नैराश्य के बाद इसकी रोकथाम पर कुछ ज्यादा करने की सख्त जरूरत है।
अध्ययन कहता है लोग कई कारणों से अपनी जान देते हैं। मगर सबसे बड़ा कारण अवसाद यानी डिप्रेशन है। यह बीमारी आज विश्व की बड़ी समस्याओं में एक बन गई है। पूरी दुनिया में ५० करोड़ से अधिक लोग इससे पीड़ित हैं। हमें यह समझना होगा कि अवसाद का हमारे व्यक्तित्व, पृष्ठभूमि, वर्ग, स्थिति या सफलता से कोई लेना-देना नहीं है। किसी भी अन्य बीमारी की तरह यह भी एक रोग है, जिसका इलाज संभव है। इस सोच को यदि हम अपना लें, तो आत्महत्या के मामलों में खासी गिरावट लाई जा सकती है। मगर फिलहाल ऐसा होता दिख नहीं रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन बताता है कि दुनिया भर में करीब आठ लाख लोग हर साल आत्महत्या करते हैं। यह स्थिति तब है, जब सतत विकास लक्ष्य में आत्महत्या-रोकथाम भी एक महत्वपूर्ण लक्ष्य घोषित है। गहरा सदमा, यौन शोषण, आर्थिक संकट, रिश्ते का टूटना जैसे कई कारणों से लोग खुदकुशी करते हैं। मगर भारत में इसकी एक वजह कोरोना काल से भी काफी पहले से परिवार नामक संस्था का दरकना भी है। यह धारणा भी निर्मूल नहीं है किआत्म-केंद्रित इंसानों में आत्महत्या के विचार ज्यादा आते हैं। दरअसल, मानव मस्तिष्क में न्यूरो ट्रांसमीटर होते हैं, जिनमें मौजूद स्ट्रेस हार्मोन छोटी-सी चिंता को भी आवेश में बदल देता है। इसे रोकने के लिए सिरोटोनिन नामक न्यूरो ट्रांसमीटर की जरूरत होती है, जो सामाजिक बने रहने से सक्रिय रहता है। इसीलिए हमें समाज में योगदान देते रहना चाहिए।
देश के वर्तमान हालातों में सीपीआर, यानी कार्डियोपल्मोनरी रिससिटेशन (अचानक हार्टअटैक आने पर छाती को तेज-तेज दबाने की प्रक्रिया) सबको आनी चाहिए, उसी तरह से आम लोगों में क्यूपीआर (क्वेस्चन, परस्वेड और रेफर) की जानकारी भी जरूरी है। क्यूपीआर का मतलब है, मरीज से सवाल पूछना, उसे समझाना और परामर्श के लिए डॉक्टर के पास भेजना।
आत्महत्या रोकने के लिए व्यक्तिगत, सामुदायिक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए जाने की जरूरत है। अगर किसी के मन में खुदकुशी के ख्याल आ रहे हैं, तो उसे किसी करीबी से अपनी समस्या साझा करनी चाहिए। पेशेवर परामर्शदाता और मनोचिकित्सक तो काफी कारगर होते ही हैं। इसके अलावा, ऐसे लोग भी सामने आएं, जो हमारे बीच के अतिसंवेदनशील और निर्बल लोगों में विश्वास पैदा कर सकें।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।