भारत के बारे में यह प्रचार बरसों से होता आया है, भारत कृषि प्रधान देश है | हकीकत में गाँव में छोटा किसान, शहर में मध्यम वर्ग का जवान, और सीमा पर तैनात जवान दुखी है | देश में एक समान नीति बनाने में में किसी की रूचि नहीं है | देश के प्रत्येक “ वोट बैंक “ की बेचारगी को उभार कर घोषणाओं मरीचिका दिखाते दलों का निशाना इन दिनों किसान है | संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह |उसकी मजबूरी है, अपने किसान को पुत्र कहने वाले मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद विधायक सब हैं, पर कोई उससे उसका दर्द नहीं पूछता |
पूरे देश में खेती-बाड़ी और किसानों की चुनौतियां तथा सफलताएं लगभग एक भी हैं| 1966-67 की हरित क्रांति हो या 1973-74 अनाज की भंडारण क्रांति केंद्र में किसान था आज भी किसान का कौशल अकुशल भंडारण, आधे अधूरे दाम, मंडियों में तोलने में गड़बड़ी, भुगतान में हेरा-फेरी और देरी तथा मंडियों से शुरू नेताओं की राजनीति के आगे परास्त है | इसके विपरीत कई वर्षों से भाजपा ही नहीं, कांग्रेस, समाजवादी, जनता दल अपने घोषणा-पत्रों में बिचौलियों से मुक्ति, अधिक दाम, फसल बीमा और हर संभव सहयोग के वायदे करती रही हैं| नतीजा सबके सामने है |
सब जानते हैं |स्वास्थ्य का मुद्दा हो या खेती-किसानी का, समय के साथ सुधार करने होते हैं. अनाज की खुली बिक्री-खरीदी, अधिकतम मूल्यों के प्रावधान के लिए पहले अध्यादेश और अब संसद से स्वीकृति के बाद आनेवाले महीनों में भी कुछ और सुधारों की आवश्यकता हो सकती है| पंजाब, हरियाणा की राजनीति और बड़ी संख्या में बिचौलियों के धंधे पर जरूर असर होनेवाला है, कहते है अधिकांश राज्यों के किसानों को अंततोगत्वा बड़ा लाभ होनेवाला है| प्रधानमंत्री मोदी और कृषिमंत्री नरेंद्र तोमर ने घोषणा कर दी है कि सरकार द्वारा न्यूनतम मूल्यों पर खरीद निरंतर होती रहेगी|खाद्य निगम गेहूं और धान तथा नेफेड दलहन व तिलहन की खरीद करते रहेंगे|
सवाल यह है किसान केवल सरकारों पर ही निर्भर क्यों रहे या वह इलाके की मंडी की मेहरबानी पर क्यों रहे? वह अपनी फसल का मनचाहा दाम क्यों न लें| आज अनाज लाने -ले जाने के विरोध में हमारे नेता चिंता जता रहे हैं कि किसानों के साथ अनुबंध करनेवाले बड़े व्यापारी या कंपनियां उन्हें ठग लेंगी, ऐसा माहौल बनाया जा रहा है | यह भी अनुमान जताया जा रहा है कि बड़े व्यापारी शुरू में अधिक कीमत दें और बाद में कीमत कम देने लगें| यही गलती हैं कि अब किसान और दूर-दराज के परिवार संचार माध्यमों से बहुत समझदार हो गये हैं. वे बैंक खाते, फसल बीमा, खाद, बीज और दुनियाभर से भारत आ रहे तिलहन, प्याज, सब्जी-फल का हिसाब-किताब भी देख-समझ रहे हैं| भंडारण-बिक्री की व्यवस्था होने पर उन्हें अधिक लाभ मिलने लगेंगे| ऐसे में दलालों, बिचौलियों और ठगों से बचाने के लिए सत्तारूढ़ नेता ही क्यों, प्रतिपक्ष के नेता, कार्यकर्ता, पुलिस, अदालत, मीडिया क्यों सहयोग नहीं कर सकता? अन्नदाताओं के सम्मान और हितों की रक्षा की जिम्मेदारी सम्पूर्ण समाज की है|
दुर्भाग्य यह है कई नेता फोटो खिंचवाने और विज्ञापनों के लिए ट्रैक्टर पर बैठ जाते हैं| उन्हें जमीनी समस्याओं का अंदाज नहीं होता| किसान जानता है कि अब तक कई प्रधानमंत्रियों के सत्ताकाल में किसानों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुकाबले लायक बनाने के प्रयास नहीं हुये | इतिहास गवाह है और अब किसानों के नाम पर राजनीति करनेवाले बड़े नेता अब दुनिया में नहीं रहे, अलग प्रान्तों में बनते सन्गठन किसान की आवाज को कमजोर क्र रहे हैं | अब इसे दुर्भाग्य कहा जायेगा कि अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों के असली नेता कहे जानेवाले समाजसेवी व्यक्तिव् देश में नहीं दिखायी दे रहे हैं| केवल भाषण, टीवी चैनल और फेसबुक वाले पांच सितारा शैली के लोग किसानों के नाम पर सरकार का विरोध कर रहे हैं| संसद का सत्र इसी हंगामे में सिमट गया, सरकार समर्थन मूल्य की घोषणा और दो बिल लाकर शांत हो गई है | विपक्ष, शोर शराबे और धरने को अपना पावन कर्तव्य मान रस्म अदायगी कर चुका है | जिस किसान और किसानी के नाम पर यह सब हो रहा है उससे उसके हाल पूछने की किसी को फुर्सत नहीं है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।