क्या आपको कभी अचरज नहीं होता कि स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी संविधान में प्रदत्त “समानता का अधिकार” देश में सबको क्यों नहीं मिला? ख़ास तौर पर उनको जो अपने इस अधिकार को, अपने साधनों से सर्वोच्च न्यायालय की दहलीज तक जाकर अपने लिए “समानता” नहीं मांग सकते। अभी भी “समानता” संविधान के अनुच्छेद में दर्ज है, हकीकत में केवल दिवास्वप्न मात्र है। आम आदमी का शोषण अब तक लगातार जारी है |
सारा देश जानता है संविधान की शपथ लेकर सत्ता के शिखरों पर बैठने वाले यह भूल जाते हैं कि उनका पहला कर्तव्य उन लोगों तक अन्न, धन और जीवन की आवश्यक सुविधाएं पहुंचाना है जो इस देश के कमजोर गरीब नागरिक हैं और अभी दुष्काल की विभीषिका झेल रहे हैं | उन्ही के वोटों से ये सत्ताधीश सत्ता की मसनद पर मचक रहे हैं। किसी भी राज्य के चुनाव उप चुनाव का उदाहरण लीजिये, चुनाव की पूर्व वेला में किसान ,बुजुर्ग, बेसहारा, विधवाएं और अनाथ बच्चे और उनकी कल्याण योजनाओं की बाढ़ आ जाती है | और सबसे ज्यादा कुठाराघात चुनाव के बाद इन्ही तबको पर होता है | आज की सारी सरकारें यही तो कर रही है।
इस दुष्काल में मजदूरों को न्यूनतम वेतन के भी लाले पड़े हुए है, पूरे देश में यह विडंबना है। पहले सरकार ठेकेदारों से काम करवाती है और फिर ठेकेदार आगे ठेकेदारी करते हैं। क्या देश की सरकार, सभी प्रांतों की सरकारें यह नहीं जानतीं कि प्राइवेट तंत्र में शोषण है, लेकिन सरकारी तंत्र में जितना शोषण है, उससे ज्यादा भ्रष्टाचार है |उसे रोकने या कम करने के लिए एक भी प्रयास कोई नहीं कर रहा है । हर सांसद, मंत्री या पूर्व सांसद, विधायक किसी बीमारी का इलाज देश-विदेश में या प्राइवेट अस्पतालों में करवाता है तो उस पर असीमित खर्च किया जाता है| भोपाल इंदौर के निजी अस्पताल कोरोना काल में वी आई पी चिकित्सा केंद्र में बदल गये हैं | गरीब आदमी को सरकारी अस्पताल में भी पलंग मुश्किल से मिल रहा है | क्या कोई विश्वास करेगा कि देश में एक वी आई पी परिवार पर तीन करोड़ से ज्यादा चिकित्सा खर्च होता है , लेकिन आमजन सरकारी अस्पतालों की दहलीज पर धक्के खाता और कभी-कभी बिना उपचार के ही मर जाता है। जनप्रतिनिधियों का उपचार भी सरकारी अस्पताल में बिना खर्च हो , यदि प्राइवेट उपचार या विदेशों में उपचार उन्हें अपने खर्च पर ही करवाना पड़ेगा तब संभव है राज्यों के करोड़ों रुपये बच जाएं। पूरे देश में तो अरबों रूपये बच सकते हैं।
देश का एक बड़ा तबका वृद्धावस्था पेंशन की मेहरबानी पर जिन्दा है | यह पेंशन इतनी कम है कि दो समय दो दो रोटी नहीं खा सकते | सरकारी कर्मचारियों की पेंशन में हर दिन कटौती हो रही है यह किस दिन बंद हो जाएगी कोई कह नहीं सकता | इसके विपरीत पूर्व विधायकों और सांसदों को तो जीवन भर के लिए पेंशन मिलती है। पेंशन मिलनी चाहिए, इसमें कोई बुरी बात नहीं, पर लाखों में पेंशन देना कहां का न्याय है, जबकि सरकारी कर्मचारियों को को निश्चित समय के बाद पेंशन नहीं मिलेगी। सीमाओं की रक्षा कर रहे अर्द्धसैन्य बल हैं, उनको भी सेवानिवृत्ति के बाद कोई पेंशन नहीं मिलेगी।
देश में जो बड़े-बड़े कानून के ग्रंथ पढ़े वकील रख सकते हैं, लाखों रुपये खर्च कर अदालत की शरण में जा सकते हैं, उनको तो समानता मिलती है , पर जिन बेचारों को दो जून की रोटी मुश्किल से मिलती है, उनके लिए कोई समानता देश में नहीं है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।