भारत के सारे शहरों में फिर से प्रवासी मजदूर लौट रहे हैं | कहीं ये पहुंच चुके हैं, कहीं पहुंच रहे हैं| कोरोना दुष्काल के पहले मिलने वाली मजदूरी की राशि जिसे वेतन या दिहाड़ी कोई भी नाम दें अब पहले की तुलना में आधा हो चुका है |खर्च बढ़ गया है, इस संतुलन को साधने के उपाय क्या हो ? यह प्रवासी मजदूरों से ज्यादा शहर में स्थायी रूप से बसे और प्रवासी मजदूरों को निरंतर काम उपलब्ध कराने वाले समाज के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है | सरकार की योजनायें बड़े लोगों तक सीमित है, सबसे ज्यादा बुरा हाल शहरों में बसे मध्यम वर्ग का है |
अगर यह कहें तो भी गलत नहीं होगा कि अब विश्व की आधी आबादी शहरों की निवासी हो चुकी है और अगले कुछ दशकों में अनेक विकसित देशों में पूर्ण रूप से शहरीकरण का विस्तार हो जायेगा|भारत में यह समस्या बहुत बड़ी हो जाएगी | अभी दुनियाभर में वर्तमान में हर चौथा व्यक्ति मलिन बस्तियों में रहता है| विकासशील देशों में तो यह अनुपात और भी अधिक है| भारत में यह संख्या लगभग २४ प्रतिशत है| शहरीकरण की तेज प्रक्रिया की वजह से भारत सहित अनेक विकासशील देशों में जल आपूर्ति, जल निकासी, सार्वजनिक स्वास्थ्य पर बोझ बढ़ रहा है|आने वाले वर्षों में ऊर्जा खपत से कॉर्बन उत्सर्जन बढ़ेगा और इससे पर्यावरण भी प्रभावित होगा| हमारे देश में शहरी आबादी को वायु प्रदूषण की वजह से जहरीली हवा में सांस लेना होगा और साथ ही वायु प्रदूषण से मौतें भी होंगी |
शहरों में आनेवाले ग्रामीण प्रवासी अक्सर खराब रिहायशी इलाकों में, अमूमन मलिन बस्तियों में रहते हैं, जहां जीवनयापन की तमाम दुश्वारियां होती हैं| ऐसी जगहों पर मूलभूत सुविधाओं से जुड़े सार्वजनिक ढांचे का बड़ा अभाव होता है| इन दिनों खराब आवास के लिए भी प्रवासियों को अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा व्यय करना होता है| उन्हें होने वाली आमदनी आवासीय खर्च को पूरा करने के लिए अपर्याप्त होती है, इससे अन्य खर्चों और बचत के लिए गुंजाइश कम होटी जा रही है|
गांवों से पलायन कर शहरों में पहुंचे अकुशल लोग इतनी कमाई नहीं कर पाते कि उनका जीवन स्तर सामान्य शहरी तक पहुँच सके| ऐसे लोग खराब आवासीय इलाकों या मलिन बस्तियों में इसलिए रहना स्वीकार करते हैं, ताकि वे अपने बच्चों की शिक्षा के लिए कुछ बचत कर सकें| जीवन से जुड़ी मूलभूत सुविधाओं में निवेश करने की सरकार की अक्षमता, इन परिवारों की मुश्किलों का कारण बनती है| ऐसे परिवारों के बच्चे स्कूलों में रहने की बजाय अक्सर गलियों और सड़कों पर सामान बेचते, भीख मांगते हुए दिखते हैं |कई बच्चे तो आपराधिक कार्यों में भी संलिप्त हो जाते हैं|
अक्सर, शहरों में मूलभूत सुविधाओं से जुड़ी समस्याओं के लिए गरीब आबादी को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है| उन्हें गंदगी और अव्यवस्था के लिए जिम्मेदार कहा जाता है, कभी-कभी राजनीति इसमें जाति और सम्प्रदाय का तड़का भी लगा देती है |
सरकार आवासीय योजनाओं के लिए सार्वजनिक जमीनों को खाली कराने और योजनाबद्ध तरीके से उसके अधिग्रहण के बजाय अमूमन विध्वंस और लोगों के विस्थापन को समाधान मानती है |मलिन बस्तियों में पाइप जलापूर्ति से पानी की समस्या से छुटकारा पाने की कोशिश होती है, ऐसे स्थानों पर जलनिकासी की उचित व्यवस्था न होने से ,जल प्रदूषण से होनेवाली बीमारियों का भी एक अच्छा खासा प्रतिशत होता है|
शहरी क्षेत्रों में प्रवासी लोगों का भविष्य कुशल अकुशल लोगों की आय में निरंतर वृद्धि पर टिका है| अर्ध कुशल लोगो के सौपे कार्यों से ऑटोमेशन नहीं हो सकता| ऐसी दशा में इन क्षेत्र में रोजगार की मांग बनी रहेगी, लेकिन जीवनयापन के लिए इन क्षेत्रों में काम करनेवालों को पर्याप्त तनख्वाह नहीं मिल सकेगी| और हमेशा पलायन कर शहरी क्षेत्रों में पहुंचनेवाले ज्यादातर प्रवासी इसी कार्यक्षेत्र के दायरे में होंगे|
आगे यानि भविष्य में शहरों की कामयाबी इस बात निर्भर करेगी कि वे अनेक कार्यों की परिस्थितियों के लिए वे कैसे समावेशी समाधान निकालते हैं और कैसे अर्धकुशल लोगों के लिए भी रहने की व्यवस्था कैसे कर पाते हैं, जिससे शहरों व वहां के निवासियों की स्थिति में सुधार हो सके| इसमें कोई दो मत नहीं है शहरों में भीड़ लगातार बढ़ती जायेगी और इससे लाभ तथा शहरी सघनता के दुष्प्रभाव दोनों होंगे|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।