समाचार-पत्र सूचनाओं और विचारों के संप्रेषण का एक महत्वपूर्ण साधन है। राजनीतिक स्वतंत्रता तथा प्रजातंत्र की सफलता के लिए प्रेस की स्वतंत्रता अनिवार्य है। भारतीय प्रेस-कमीशन ने इस प्रकार विचार व्यक्त किये हैं- प्रजातंत्र केवल विधानमंडल के संचेत देखभाल में ही नहीं वरन लोकमत की देखभाल और मार्गदर्शन के अंतर्गत भी फलता-फूलता है, प्रेस की ही यह सबसे बड़ी विशिष्टता है कि उसके ही माध्यम से लोकमत स्पष्ट होता है।
साकल पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ-
मामले में यह अभिनिर्धारित किया है कि वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है, क्योंकि समाचार-पत्र विचारों को अभिव्यक्त करने के माध्यम मात्र ही है। प्रेस की स्वतंत्रता एक साधारण नागरिक की स्वतंत्रता से बढकर नहीं है और यह उन निर्बन्धनों के अधीन है जो भारतीय संविधान अधिनियम, 1950 के अनुच्छेद 19(2) द्वारा नागरिकों के वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाये गए है, एवं प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है।
प्रेस नागरिकों की सूचनाएं जान सकती है: प्रभुदत्त बनाम भारत संघ
इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रेस की स्वतंत्रता में सूचनाओं तथा समाचारों को जानने का अधिकार भी शामिल है। प्रेस को व्यक्तियों से साक्षात्कार के माध्यम से सूचनाएं जानने की स्वतंत्रता है लेकिन जानने की स्वतंत्रता आत्यंतिक नहीं है, प्रेस नागरिकों से तभी सूचनाएं जान सकता है जब वे प्रेस को अपनी इच्छा से कोई बात बताना चाहते हो।
उक्त मामले में यह निर्णय भी दिया गया है कि यदि मृत्युदण्ड के अपराधी अपनी इच्छा से कोई बात बताना चाहते है तो प्रेस को उनसे पूछने की अनुमति दी जानी चाहिए। यदि किसी मामले में उन्हें इंटव्यू करने की अनुमति नहीं दी जाती है तो उसके कारणों का उल्लेख किया जाना चाहिए।
प्रस्तुत मामले में हिंदुस्तान टाइम्स के चीफ रिपोर्टर (पत्रकार) को रंगा-बिल्ला का इंटरव्यू करने की अनुमति देने से जेल के अधिकारियों ने इनकार कर दिया था जब कि दोनो दोषसिद्धि आरोपी थे और वह स्वेच्छा से इंटरव्यू देना चाहते थे।
2. दूसरा महत्वपूर्ण वाद (एम. हसन बनाम आंध्रप्रदेश सरकार) -: इस मामले में दो मृत्युदण्ड के कैदियों से साक्षात्कार करने की प्रार्थना को इनकार कर दिया था। जेल अधिकारियों ने इनकार करने के निम्न कारण बताए थे:-
1.बताया गया कि बहुत से लोग उनकी सजा हटाने के लिए आंदोलन करेंगे।
2.ऐसे प्रदर्शन और वीडियो फिल्म न्यायालय की प्रतिष्ठा को घटायेगी।
3.बताया गया कि कैदियों ने पहले इंटरव्यू की स्वीकृति नहीं दी थी उन्होंने बाद में स्वीकृति दी।
4. कैदियों के विचारों और भावनाओं को प्रेस या वीडियो फिल्मों द्वारा रिपोर्टिंग को उनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अनुमति नहीं दी जा सकती है।
इस मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि उपर्युक्त कारणों का अनुच्छेद 19 के खण्ड (2) में विनिर्दिष्ट निर्बंधनो में कोई उल्लेख नहीं है। फ़िल्म, चलचित्र, वीडियो या इंटरव्यू से उनकी सहमति प्राप्त होने के बाद चाहे वह कभी भी दी गई हो दोषसिद्धि कैदियों को रोकना भारतीय संविधान अधिनियम, 1950 के अनुच्छेद 19(1)(क) के अधीन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है और असंवैधानिक तथा अविधिमान्य है।
"लेकिन विचाराधीन कैदियों का साक्षात्कार लेना प्रेस को अधिकार नहीं है। राज्य बनाम चारुलता जोशी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि प्रेस जेल में विचाराधीन कैदियों के साक्षात्कार करने का अवाध अधिकार नहीं है। :- लेखक बी. आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665 | (Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article)
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