अब फिर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को परामर्श जारी किया है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में अनिवार्य रूप से कार्रवाई की जाये,साथ में यह भी कि ऐसे मामलों में प्राथमिकी भी अनिवार्य रूप से दर्ज हो, जांच दो माह में पूरी कर ली जाये।ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न है कि केंद्र सरकार के परामर्श के बाद क्या स्थिति सुधरेगी? क्या अब पुलिस को पीड़िताओं के प्रति संवेदनशील बनाया जा सकेगा?
हाथरस और उसके साथ तथा आगे पीछे अन्य राज्यों हुए इन कांडों से निपटने में भाजपा सरकार की छीछालेदर और देशव्यापी आक्रोश के बाद अब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को परामर्श जारी किया कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में अनिवार्य रूप से कार्रवाई की जाये। यह भी कि ऐसे मामलों में प्राथमिकी भी अनिवार्य रूप से दर्ज हो, जांच दो माह में पूरी कर ली जाये। पहले भी ऐसी वीभत्स घटनाएँ घटीं थी, तब घटनाओं के बाद भी केंद्रीय कानून मंत्री ने ऐसा परामर्श जारी किया था।कुछ सवाल स्वाभाविक है कि अब ऐसे परामर्श जारी करने की फिर जरूरत क्यों पड़ी? क्यों उत्तर प्रदेश सरकार हाथरस कांड में लगातार एक के बाद एक गलतियां करती रही है, जिसके चलते विरोध में देशव्यापी आक्रोश उत्पन्न हुआ?
निस्संदेह इस मामले में दिल्ली के सफदरगंज अस्पताल में युवती की मौत के साथ राजनीतिक खेल शुरू हो गया था और फर्जीवाड़ा भी | जबलपुर मध्यप्रदेश की डाक्टर का उस परिवार में भाभी बनकर जाना जहाँ एक गम्भीर अपराध है| मध्यप्रदेश सरकार की कड़ी कार्रवाई की जगह पूछताछ की रस्म अदायगी सवलिया निशान की जद में है तो उत्तर प्रदेश सरकार से भी इस बात का जवाब लेना चाहिए की उसने सच को सामने लाने की राह में अवरोध क्यों खड़े किये? क्यों आनन-फानन में युवती का अंतिम संस्कार परिजनों की अनुपस्थिति में किया? क्यों गांव को छावनी में बदलकर राजनीतिक दलों को रोका गया? न केवल मीडिया पर बंदिशें लगायी गईं बल्कि कुछ पत्रकारों की गिरफ्तारी तक की गई। राज्य सरकार के उच्च अधिकारियों के विरोधाभासी बयान लगातार जारी हैं । अब एसआईटी से जांच लेकर सीबीआई को सौंप दी गई है। एक ओर जहां पीड़ित पक्ष न्याय की गुहार लगा रहा है, वहीं आरोपी खुद को झूठा फंसाने के आरोप लगा रहे हैं।इससे सबसे सरकार और समाज का कितना नुकसान हुआ और हो रहा है |
आज महत्वपूर्ण और राष्ट्रव्यापी प्रश्न खड़ा है कि केंद्र सरकार के परामर्श के बाद क्या स्थिति सुधरेगी? क्या अब पुलिस को पीड़िताओं के प्रति संवेदनशील बनाया जा सकेगा? क्या सारी राज्य सरकारों के पास इतने संसाधन हैं कि दो माह के भीतर साक्ष्य जुटाकर उनका वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण करके सच को सामने ला सकें? क्या राज्यों के पास इतने सक्षम अधिकारी हैं जो वक्त रहते फोरेंसिक जांच को अंतिम रूप दे सकें? क्या राज्यों के पास पर्याप्त फोरेंसिक प्रयोगशालाएं हैं जो सामूहिक दुराचार के मामलों में जांच को पूरा करके दो माह में मामले का निस्तारण कर सकें?
2012 में निर्भया कांड के बाद भी कानून सख्त बनाकर शीघ्र न्याय दिलाने की बात कही गई थी? क्या देश में पर्याप्त संख्या में वे विशेष अदालतें स्थापित हो पायी हैं, जहां महिलाओं को शीघ्र न्याय दिलाने की बात कही गई थी? क्या राज्यों की पुलिस में महिला पुलिसकर्मियों की पर्याप्त संख्या है, जो संवेदनशील व्यवहार से अपराधियों के खिलाफ पीड़िताओं को मजबूती से खड़ा होने को प्रेरित कर सकें? इससे आगे भी सवाल हैं और वो सवाल ये हैं कि शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप के बाद पर्याप्त त्वरित अदालतें स्थापित हो पायी हैं? कितनी अदालतों में महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति हुई है। असल सवाल यही है कि क्या हम जमीनी तौर पर वे व्यवस्थायें स्थापित कर पाये हैं जो महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में दो माह में जांच पूरी करने में सहायक हों?उत्तर सारे सवालों का एक है नहीं और ये उत्तर बताता है भारत बहुत पिछड़ा है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।