भोपाल की सब्जी मण्डी में सब्जी बेचने वाले छोटे व्यापारी भी मानते हैं कि “ कर्ज भुगतान न करना एक पाप है”| उनकी नजर में माल्या-मोदी जैसे कर्ज लेकर भागने वाले गुनहगार है | छोटे सब्जी फरोशों की भाषा कुछ भी हो बैंक की भाषा में इसे ही “ऋण अनुशासन “या “क्रेडिट डिसिप्लीन” कहते हैं| अगर देश में ऋण अनुशासन बेहतर है, तो अर्थव्यवस्था अच्छा काम करती है| आज यही ऋण अनुशासन देश के सामने एक बड़ी समस्या है |
वास्तव में यह अनुशासन कर्जदार तथा कर्जदाता दोनों पर निर्भर है| देश में इन दिनों इसे ही बेहतर व व्यापक बनाने की जरूरत है,ताकि जरूरतमंदों को आसानी से ऋण मिल सके| क्रेडिट निर्माण से ही आर्थिक गतिविधियों में विस्तार और वृद्धि होगी | देश की बैंकिंग प्रणाली क्रेडिट संस्कृति पर निर्भर है, ताकि ऋणों पर (व्यापार में गिरावट के कारण) चूक के बावजूद यह बढ़ती अर्थव्यवस्था की जरूरतों को पूरा कर सके| अत: जब आधिकारिक मंजूरी से पुनर्भुगतान को रोका जाता है, तो यह दीर्घकालिक और गंभीर परिणाम के साथ बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय होता है| और जब राजनीतिक फैसले के तहत किसानों को कर्जमाफी दी जाती है, तो इसका असर क्रेडिट कल्चर पर पड़ता है|
पहला, यह उन किसानों के साथ गलत है, जो डिफॉल्ट से बचने और कर्ज अदा करने के लिए बहुत परिश्रम करते हैं| दूसरा, बार-बार माफी से ऋण अदा नहीं करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है|
तीसरा, यह बैंकरों और उधारदाताओं को सोचने पर विवश करता है और वे उधार देने से बचने लगते हैं| इससे ऋण विस्तार के बजाय ऋण संकुचन की स्थिति बन जाती है, लेकिन, वास्तव में गंभीर संकट में कर्ज माफी करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है| ऐसे हालात में पूरी तरह माफ कर देने की बजाय ऋण स्थगन या कर्ज पुनर्संरचना ही बेहतर विकल्प है|
ऋण स्थगन, जो क्रेडिट कल्चर के लिए अपेक्षाकृत बेहतर है, इसका सरकार द्वारा निर्णय किया जाता है| ऐसे में उधारदाता को वित्तीय संसाधनों, जैसे कि करदाताओं से क्षतिपूर्ति करना पड़ता है| कुछ सवाल उठते है , क्या करदाता इस बात से सहमत होंगे कि यह सभी के हित में है? क्या होगा अगर कर्जदाता को डिफाल्टर्स द्वारा जानबूझकर कष्ट पहुंचाया गया है? अगर मिलीभगत और भ्रष्टाचार के आधार पर फर्जी ऋण दिया गया हो, तो क्या होगा?क्या फंसे ऋणों का बोझ करदाताओं पर डालना उचित है? क्या सार्वजनिक क्षेत्र और कोऑपरेटिव बैंकों को डिफॉल्ट और धोखाधड़ी वाले ऋणों से अधिक खतरा है? सार्वजनिक क्षेत्र तथा कोऑपरेटिव बैंकों के नियमन और ऋण प्रबंधन को हम कैसे बेहतर बना सकते हैं? ये कुछ ऐसे गंभीर प्रश्न हैं जो क्रेडिट कल्चर को संरक्षण और बढ़ावा देने से जुड़े हैं |
सब जानते हैं कि लॉकडाउन से ठप हुई आर्थिक गतिविधियों के कारण देश में नकदी प्रवाह बाधित हुआ, इस संकट से उबरने के लिए कर्जदारों की मदद के लिए कुछ अस्थायी उपाय भी हुए| देश में कुल ३८ लाख करोड़ से अधिक का ऋण प्रभावित हुआ है| इस प्रकार इन छह महीनों में अर्जित ब्याज लगभग दो लाख करोड़ रुपये है| यह उपार्जित ब्याज, जिसका भुगतान स्थगित कर दिया गया है, वह एक ताजा ऋण की तरह है, जिसका बोझ लगभग ५००० करोड़ है |
दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता ब्याज पर छूट की मांग कर रहे हैं| इससे क्रेडिट कल्चर का प्रभावित होना लाजिमी है| ब्याज अदायगी, धन के सामयिक मूल्य के भुगतान के बराबर है| यही बैंकों की ब्याज कमाई है, जिससे वे जमाकर्ताओं की बचत और सावधि जमा पर पुनर्भुगतान करते हैं| अगर उस ब्याज कमाई से बैंक वंचित रह जाते हैं, तो बैंक मुश्किल में होंगे और उन्हें मालिकों और शेयरधारकों से नयी इक्विटी के लिए कहना होगा| चूंकि, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में भारत सरकार मुख्य शेयरधारक है, ऐसे में वह मदद के लिए करदाताओं को कहेगी| बैंकों पर अनुचित बोझ डालने के बजाय यह बेहतर है कि सरकार इसे अपने स्तर पर सुलझाये और सीधे सरकारी खजाने से करदाताओं को राहत दे अन्यथा ब्याज माफी से क्रेडिट अनुशासन को नुकसान होगा|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।