किसान आत्म हत्या क्यों करता है ? जैसे सवाल पर एक बड़े विद्वान् का मत है कि ऋण लेने वाला किसान ही आत्म हत्या करता है | उनकी अपनी इस राय के पीछे कुछ तर्क भी हो सकते हैं |वस्तुत: किसानी में सार्वजनिक निवेश कम हो रहा है और इस कमी के चलते किसान और किसानी दुर्दशा को प्राप्त हो रहे हैं | रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट बताती है, वर्ष २०१२ -२०१८ के बीच कृषि में सार्वजनिक निवेश ०.४ से ०.४ के बीच में रहा है और इतनी धीमी गति से निवेश होगा, तो कृषि से चमत्कार की उम्मीद गलतफहमी ही होगी। इसे समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि कॉरपोरेट को हर साल जीडीपी का छह प्रतिशत कर रियायत के रूप में दिया जाता है, यही पैसा अगर कृषि में निवेश किया जाता, तो आज भारत में कृषि का रूप ही दूसरा होता।
ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन ऐंड डेवलपमेंट की एक रिपोर्ट बताती है, वर्ष और २०१६ के बीच में किसानों को ४५ लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। इससे पता चलता है, किसानों से जुड़ी अर्थव्यवस्था पर व्यवस्था ने जान-बूझकर प्रहार किया है। हर साल किसानों को २.६४ लाख करोड़ रुपये का नुकसान सहना पड़ता है। किसानों का यह रोष इसलिए भी बार-बार उभर आता है, क्योंकि किसानों की कमाई या उनका हित सुनिश्चित नहीं है।
सवाल यह क्या किसानों की आय बढ़ाना जरूरी नहीं है? दशकों से किसानों की आय कम रही है और किसानों की आय को लगातार कम रखने की कोशिश होती रही है। किसान लगातार मांगते रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को अनिवार्य कर दिया जाए या इस संबंध में एक नया अधिनियम लेकर आया जाए, जिसके तहत कोई भी खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे नहीं हो, समर्थन मूल्य केवल धान और गेहूं के लिए नहीं हो। यह सभी फसलों पर लागू हो। इससे किसानों की आय बढ़ सकती है। दूसरा रास्ता है, कृषि में सार्वजनिक निवेश दशकों से घट रहा है, इसे बढ़ाने की जरूरत है।
आज के समग्र परिवेश को देखें तो आज किसानी में दो बातें करनी जरूरी हैं। एक तो किसानों की आय बढ़ाने की जरूरत। दूसरी, कृषि-निवेश बढ़ाने की जरूरत। अगर ये दोनों कार्य किए जाएं, तो ही संभव हो सकता है, ‘सबका साथ-सबका विकास’ वरना यह नारा नारा ही रहता दिख रहा है । यह भी सत्य है कि आत्मनिर्भर होने का रास्ता भी किसानी से होकर जाता है। जब किसानी में लगे ६० प्रतिशत लोगों के हाथों में पैसा होगा, तो उससे मांग बढ़ेगी, अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ेगी।
वस्तुत: आज भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को कृषि आधारित बनाने की जरूरत है, जिससे अन्न या भोजन का अभाव दुनिया के किसी कोने में न रहे। यह माना जा रहा है कि कोरोना वायरस के समय में भूखे लोगों की अतिरिक्त तादाद करीब १५ करोड़ हो जाएगी। भूख से निजात के बारे में पूरी दुनिया सोच रही है| आंकड़े कहते आज दुनिया में ७.५ अरब लोग हैं, और उससे कम लोगों के लिए भोजन उपलब्ध है। भोजन का ३० से४० प्रतिशत हर साल बरबाद हो जाता है। अगर कहीं कमी है, तो एक समग्र वैश्विक राजनीतिक सोच या दृष्टिकोण की ।भूख का रूप और परिणाम पूरी दुनिया में एक जैसे हैं |
भूख के मद्देनजर भारत को ज्यादा सजग होना च्चिये है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स २०२० बताता है कि दक्षिण एशिया के अन्य देश भारत से अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। भारत ११९ देशों के बीच १०२ वें स्थान पर है। यह विडंबना ही है, भारत में जो अन्न भंडार हैं, धान और गेहूं, हमारी जरूरत से कहीं ज्यादा हैं। इतना अन्न होने के बावजूद हमारी रैंकिंग अगर १०२ आती है, तो कहीं बड़ी गडबडी है और यह गडबडी चिंता का विषय है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।