देश में इन दिनों एक बहस चल रही है कि “भारत में बेटियों के विवाह की उम्र क्या हो? युवा समाज,प्रौढ़ समाज, बुद्धिजीवी और न्यायालय तक में इस विषय पर विचार विमर्श जारी है| सांखियकी बताती है कि हमारे देश में 27 प्रतिशत बेटियों का विवाह किशोरवय में हो जाता है| लगभग सात प्रतिशत बेटियों का विवाह 15 वर्ष की आयु के पहले होने की पुष्टि हो रही है| ऐसे में यह सवाल उठाना लाजिमी है कि बेटी के विवाह की न्यूनतम उम्र क्या हो? न्यूनतम आयु बढ़ने के बाद कम से कम उनकी शादी तो 18 वर्ष के बाद होगी|
विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने का मुख्य उद्देश्य बेटियों को न केवल शिक्षित होने का मौका देना है, बल्कि बच्चे कुपोषित जन्म न लें, इस पर भी ध्यान रखना है| कुपोषित बच्चों सम्बन्धी ताजा आंकड़े देश को डरा रहे हैं | किशोरवय में जब भी कोई बेटी मां बनती है, तो उसके स्वस्थ बच्चे के जन्म लेने की संभावना भी कम हो जाती है, क्योंकि उसमें रक्त अल्पता होती है| ऐसा बच्चा कुपोषित रहता है और कुपोषित शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का विकास संभव नहीं है| इसमें कोई संदेह नहीं की एक शिक्षित मां ही अपने बच्चे के लिए शिक्षा के द्वार खोल सकती है| शिक्षा का अभाव सभी प्रकार की रूढ़िवादिता को जन्म देता है|
पूर्व राष्ट्रपति डॉ कलम कहते थे “शिक्षा हमें भ्रम, तर्क विहीनता, अंधविश्वास और रूढ़ियों से मुक्ति दिलाती है, मनुष्य के भीतर तर्कशीलता का भाव उत्पन्न करती है|” ऐसे में मां यदि स्वयं शिक्षित नहीं है और आत्मसम्मान की स्वयं रक्षा नहीं कर पा रही है, तो वह कैसे अपने बच्चे को सर्वांगीण विकसित और सक्षम नागरिक बना सकेगी| इस स्थिति में देश का विकास ही अवरुद्ध हो जाता है| मामला केवल इतना नहीं है कि विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने से समाज से रूढ़िवादिता हटेगी, बल्कि यह एक स्वस्थ भावी पीढ़ी के निर्माण और राष्ट्र के विकास के लिए भी जरूरी है| इस दिशा में ठोस व मजबूत पहलहोनी ही चाहिए |
बेटियों के विवाह की उम्र बढने से उनके उच्च शिक्षित होने की संभावना बढ़ जायेगी| उनके साथ होनेवाले दुर्व्यवहार में कमी आयेगी, क्योंकि 18 से 21 वर्ष की समयावधि में व्यक्ति किशोरावस्था को पार कर युवावस्था की तरफ बढ़ और मानसिक तौर पर परिपक्व हो रहा होता है| वह शारीरिक और मानसिक तौर पर अपने को अधिक मजबूत महसूस करता है|उसकी निर्णय लेने की क्षमता भी बढ़ चुकी होती है, जबकि यदि एक बेटी कम आयु में मां बनती है, तो उसके जीवन जीने की संभावना कम हो जाती है| ऐसी बेटियां घरेलू हिंसा का बहुत अधिक शिकार होती हैं| विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े भी कहते हैं कि किशोरावस्था में एक बेटी के गर्भवती होने पर उसमें खून की कमी, एचआइवी जैसी बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती हैं| कम आयु में विवाह और प्रसव होने के बाद लड़कियों के अवसाद जैसे मानसिक विकार से ग्रस्त होने की भी बहुत ज्यादा संभावना रहती है|
आज जब हम लैंगिक समानता की बात कर रहे हैं, तो बेटियों के जीवन को बचाने की बात भी करनी जरूरी है| जब उनका जीवन बचेगा, तभी तो लैंगिक समानता की बात उठेगी| जब बेटियां आत्मसम्मान को बचा कर रख पायेंगी, अपने अधिकारों के लिए भी लड़ पायेंगी|आप बेटियों को तमाम तरह के अधिकार दे दीजिए, लेकिन जब उन्हें पाने की समझ ही उनके भीतर पैदा नहीं होगी, तो वे अपने अधिकारों के लिए कैसे लड़ पायेंगी? जब मां अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं होगी, तो अपने बच्चों को कैसे सजग बना पायेगी?
बेटियों की शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने को लेकर तीन संदर्भ में 3 प्रमुख तर्क सामने आई हैं, जिनके सर्वसम्मत जवाब चाहिए | पहली , न्यूनतम आयु को लेकर पहली बार यह प्रश्न बार बार उठता है कि लड़के और लड़कियों के विवाह की निर्धारित आयु में अंतर क्यों है? इसे लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गयी और कहा गया कि यह समानता के संवैधानिक अधिकार के विरुद्ध है| इस विषय पर एक वैज्ञानिक राय देश में बनना चाहिए | दूसरी बात, मुस्लिम पर्सनल लाॅ के अनुसार, लड़की के रजस्वला हो जाने के बाद उसकी विवाह की अनुमति है, इसका भी एक तर्कसम्मत जवाब समाज के सामने आना जरूरी है तीसरी बात, विवाह की न्यूनतम उम्र बढ़ाने की बात इसलिए उठी है, क्योंकि वैज्ञानिक रूप से यह प्रमाणित हो चुका है कि कम आयु में मां बनने पर लड़की के जीवन को खतरा रहता है| तो इसकी पालना में गुरेज क्यों ?
यह एक सर्व ज्ञात तथ्य है समाज में जब भी परिवर्तन होता है, तो उसका विरोध होता है| इस बदलाव का भी विरोध होना तय है| विरोध का स्वरूप परिवर्तित करने और उसे सकारात्मक दिशा देने के लिए आमजन के मन में जो संशय है, उसे दूर करना आवश्यक है| राष्ट्र हित में सरकार को इस बारे में नीति निर्धारित करना चाहिए पर उससे पहले एक आम सहमति की कोशिश जरूरी है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।