कल गाँधी जयंती थी, बापू बहुत याद आये। उनका देश भारत बुरे आर्थिक दौर से गुजर रहा है। वैसे तो लगभग सारी दुनिया इस समय आर्थिक मंदी की भारी चपेट में है। बड़े उद्योगों के प्रबल विरोधी गांधीजी बढ़ते हुए उद्योगवाद से बहुत चिंतित थे। उद्योगवाद की इस व्यवस्था को वे शैतानी व्यवस्था का नाम देते थे। गांधीजी का मानना था उद्योगवाद की व्यवस्था मनुष्य द्वारा मनुष्य का ही शोषण किए जाने पर आधारित व्यवस्था का नाम है। आज देश में लघु उद्योग, हस्त शिल्प, करघा उद्योग तथा कामगारों से जुड़े ऐसे अन्य तमाम उद्योग बंद पड़े हैं, वहां इससे जुड़े लोग बुरी तरह प्रभावित हैं। गरीब मजदूर, आम आदमी तथा कामगार वर्ग अपनी दो वक्त क़ी रोटी का प्रबंध मुश्किल से कर पा रहा है।
गाँधी जी जानते थे कि सामाजिक क्रांति लाने तक के लिए गरीबों को रोटी, कपड़ा और मकान का मिलना जरूरी है। वे यह भी समझते थे कि एक नंगा, भूखा तथा बिना झोपड़ी का व्यक्ति देश की स्वतंत्रता अथवा स्वतंत्रता संग्राम के विषय में कुछ सोच ही नहीं सकता। स्वतंत्रता की लड़ाई के समय सबसे प्रमुख नारा यही बुलंद हुआ कि धन और धरती का बंटवारा होकर रहेगा। गरीबों के उत्थान के विषय को गांधीजी ने अपने दिल से किस हद तक लगा लिया था, यह बात उनके त्याग से आंकी जा सकती है। 1905 गांधीजी में उनकी वार्षिक आय लगभग 5 हंजार पाऊंड थी।यह आज के समय में बहुत बड़ी रंकम है। यह सब कुछ होने के बावजूद गाँधी जी के भीतर अन्याय के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने की एक ज्वाला धधक रही थी। और यह ज्वाला असमानता व अन्याय के विरुद्ध आवांज उठाने की थी।गांधीजी ने कहा था कि जब तक देश के गरीबों को सब कुछ नहीं मिल जाता, तब तक मैं कुछ भी नहीं ग्रहण करूंगा।
गांधीजी यह जानते थे कि भारत की वास्तविक आत्मा देश के गांवों में बसती है। अत: जब तक गांव विकसित नहीं हो जाते, तब तक देश के वास्तविक विकास की कल्पना करना बेमानी है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद गांधीजी ने पंडित नेहरु से यह कहा भी था कि अब देश के गांवों की ओर देखिए। देश के आर्थिक आधार के लिए गांवों को ही तैयार करना चाहिए। गांधीजी का विचार था कि भारी कारखाने स्थापित करने के साथ-साथ दूसरा स्तर भी बचाए रखना जरूरी है और यह दूसरा स्तर है ग्रामीण अर्थव्यवस्था का। आज और अब भारत सरकार द्वारा ऐसी नीतियों के कार्यान्वन की बात की जा रही है जो गांधीजी के विचारों मिलती –जुलती है। लेकिन वैसी नहीं है जैसी गाँधी जी कहते या चाहते थे।
गांधीजी भी देश के लोगों को भी आत्म निर्भर बनाने की बात कहते थे। इसीलिए वे श्रमदान करने व कराने के पक्षधर थे। जब तक उनकी बातों का प्रभाव रहा स्कूलों में दक्ष बनाने के लिए विशेष कक्षा लगा करती थी। यह शिक्षा प्रत्येक स्कूल में महात्मा गांधी द्वारा दी गई सीख तथा उनसे प्राप्त प्रेरणा के अनुरूप ही दी जाती थी। हम भी स्कूल में बागवानी पढ़ा करते थे ,परन्तु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि अब श्रमदान की परिकल्पना ही लगभग समाप्त हो चुकी है। बांगबानी की जगह कंप्यूटर शिक्षा ने ले ली है। आधुनिक शिक्षा के नाम पर मनुष्य भले ही विकास की वर्तमान राह पर अग्रसर क्यों न हो परन्तु शारीरिक रूप से आज का छात्र निश्चित रूप से आलसी होता जा रहा है।
आज भारत में गैर सरकारी तौर पर कई ऐसे संगठन काम कर रहे हैं जिन्हें श्रमदान के द्वारा पुल, सड़कें तथा बांध आदि बनाने में महारत हासिल है। भारत जैसे देश की विशालता के लिहांज से देश के आम लोगों को श्रमदान के प्रति जितना आकर्षण होना चाहिए था, उतना नहीं है। गांधीजी की याद न सिंर्फ हमारे देश के लोगों को बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सारी दुनिया को सदैव आती रहेगी तथा गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता हमेशा ही हम सभी को महसूस होती रहेगी।
अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सीख देने वाले गांधीजी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे। वे गीता को एक अध्यात्मिक ग्रन्थ स्वीकार करते थे। गांधीजी जिस ढंग से गीता के अति प्रचलित वाक्य—‘कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर’ की बात करते थे, आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी परिभाषा की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। गीता के ‘कर्म करो और परिणाम की चिंता मत करो’ की सीख देकर गांधीजी दुनिया को यह समझाना चाहते थे कि वास्तव में किसी भी मनुष्य को यह ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि कर्म करने वाला व्यक्ति किस लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से अपना कर्म कर रहा है। परन्तु मात्र लक्ष्य को ही केंद्र बिंदु मानकर यदि कर्म किया जाए ऐसी स्थिति में वही कर्ता, कर्म करने की क्रिया को नजर अंदाज कर केवल और केवल लक्ष्य को साधने अथवा फल की प्राप्ति मात्र की ही दिशा में चल पड़ता है। आज दुनिया के अन्य क्षेत्र में विशेषकर राजसत्ता से जुड़े क्षेत्रों में देखा जा सकता है। पूरी दुनिया को गांधीजी आज भी याद आते है और हमेशा आते रहेंगे। गांधीजी, उनके विचार, उनका दर्शन तथा उनके सिद्धांत कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।