देश की संसद और विधान सभाओं में इस समय जो सांसद और विधायक हैं उनमे अपने को ”किसान” और अपना धंधा “किसानी” लिखाने वाले चौधरियों की संख्या ज्यादा है | यह चलन पिछली कई संसद और विधानसभाओं के सत्रों से यथावत है फिर भी देश का किसान संत्रास में है और हर साल किसानी छोड़ने वालो की संख्या भी बहुत बड़ी है | किसानी के नये कानून लाने वाली सरकार अब कह रही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था बरकरार रहेगी, यदि सच में ऐसा है तो फिर इसे नये कानून में शामिल क्यों नहीं किया गया?
संसद और विधान सभाओं में बैठने और उन तक पैठ रखने वाले किसानो को छोड़ दें तो आम किसानों के लिए नये कृषि कानूनों की घोषणा मौत का आखिरी फरमान बनकर आई है। अन्य मुद्दों पर चर्चा छोड़ भी दें तो कुछ सवाल खड़े होते हैं | क्यों अब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य का विकल्प नहीं ढूंढ़ा गया? क्यों एफसीआई पहले की तरह फसल की खरीद नहीं कर रहा? क्यों किसान को लूटने को बड़े व्यापारिक घरानों को खुली छूट दी जा रही है? क्या किसानों की ओर से नये कृषि-कानून बनाने की मांग उठी थी? क्या किसी राज्य सरकार ने इनके लिए पहल की थी? फिर कैसे केंद्र सरकार ने बिना सहमति के , किसानों के भले के नाम पर एकतरफा निर्णय ले लिया? अब यदि केंद्र कह रहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था बरकरार रहेगी, यदि सच में ऐसा है तो फिर क्यों नहीं इसे नये कानून में बाकायदा शामिल किया गया?
आज किसान को बड़े घरानों के रहमोकरम पर छोड़ा जा रहा है, जो बेहिचक उनकी जमीन हड़पने लगेंगे? महज दो-ढाई एकड़ का मालिक किसान किसी खरबपति से कैसे कानूनी लड़ाई लड़ या जीत पाएगा? इतना तय है वह अपनी भूमि गंवाने को हरगिज़ तैयार नहीं है क्योंकि यह किसान के लिए धरती माँ है, जो उसे निश्चिन्तता का अहसास कराती है। आगे अब वह इस मुद्दे पर सामूहिक आत्महत्या की जगह कोई और रास्ता खोजेगा |
जरा उन दिनों को याद कीजिये जब भारत में खाद्यान्न की भारी कमी थी, अन्न का आयात करना पड़ता था, जो भारत जैसे गरीब देश को बहुत भारी पड़ता था। केंद्र व राज्य सरकारों ने परिवर्तनकारी कदम उठाये, नयी कृषि तकनीकें आईं। पुरजोर प्रयासों से देश में ‘हरित क्रांति’ फलीभूत हुई । आधुनिक खेती से किसानों को रूबरू करते हुए नये किस्म के बीज-खाद-कीटनाशकों का आगमन हुआ, नलकूप एवं नहरी सिंचाई प्रणाली सुधरी।देश के प्रयोगधर्मी व मेहनतकश किसानों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के नारे ‘जय जवान-जय किसान’ से प्रेरित होकर देश से भुखमरी मिटाने की चुनौती स्वीकारी। नतीजतन, गेहूं व धान की पैदावार उत्तरोत्तर बढ़ी। केंद्र ने इन जिंसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया, जिससे बेशक किसान की जेब में पैसा आने लगा, लेकिन साथ ही खाद-कीटनाशक-बिजली-पानी-डीजल-नये कृषि उपकरणों पर खर्च के रूप में निकलने भी लगा। हिसाब-किताब में किसान वैसे भी सदा कच्चा रहा है और आढ़ती ही उनका बैंक व एटीएम रहे हैं। । इस व्यवस्था की कुछ खामियां जरूर हैं, किंतु यह कारगर थी ।
संसद और विधानसभा में बैठे किसान “उत्पादक किसान “ के को उत्पाद का मूल्य तय नहीं करा सके । यह काम सरकार या फिर खरीद एजेंसियां करती थी और करती हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होने के बावजूद खरीद एजेंसियां गुणवत्ता व अन्य बहाने बनाकर औने-पौने दाम देने को मीन-मेख निकालती थी और हैं |
आज किसान और किसानी खेती-लागत में बढ़ोतरी, न्यूनतम समर्थन मूल्य का बराबर न मिलना, छोटी जोतऔर बदली जीवनशैली के कारण कर्ज के मकड़जाल में फंस क्र तिलमिला रहा है। देश का किसान समुदाय, जो रिवायती तौर पर ‘वस्तु के बदले वस्तु’ ले-देकर काम चलाता था, जबसे वह नकदी-आधारित व्यवस्था में फंसा उसे पैसों की अधिक जरूरत पड़ने लगी, जबकि सिर पर पहले ही कई तरह के कर्ज होते थे और अब भी मौजूद हैं । कृषक समाज में दिखावटी उपभोगवादी जीवनशैली के तौर-तरीके अपनाने का सामाजिक दबाव ने भी उसे इस भवर में धकेला है । अगली पुश्तों में बंटवारे से खेत सिकुड़ते गए और साल भर जमीन से अनवरत फसलें लेने, रासायनिक खाद और कीटनाशक की अंधाधुंध मात्रा से भूमि की उर्वरता घटती गई। अभी तक एक भी मामला ऐसा नहींमिला जो सीना ठोंक कर कहता हो , उसकी खेती की लागत घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से पूरी हुई है या हो जाएगी।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।