हाथरस में घटी घटना की जाँच के आदेश तक अभी किसी दिशा में नहीं पहुंचे | जमकर राजनीति हो रही है | कोई उसे भाजपा के खाते में डालने की मशक्कत कर रहा है तो किसी का निशाना वर्ग संघर्ष को हवा देना है | इस मामले में अन्य अपराधों के साथ बलात्कार भी जुड़ा है | राजनेताओं की नस्ल को छोड़ दें तो आम आदमी बलात्कार या हत्या तो दूर किसी भी अपराध के पक्ष में नहीं होता | जब तक की उसे इस बात की आश्वस्ति न हो की उसके सर पर किसी गॉड फादर [राजनेता ] का हाथ है|
बलात्कार और हत्या की हालिया घटनाओं ने देश के मानस को झकझोर दिया है| स्थिति की भयावहता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में बीते वर्ष 2019 में हर दिन बलात्कार की औसतन 87 घटनाएं हुई थीं| उस वर्ष महिलाओं के विरुद्ध अपराध के चार लाख से अधिक मामले सामने आये थे, जो 2018 से सात प्रतिशत से भी अधिक थे| विचार का विषय है शासन-प्रशासन के तमाम दावों तथा कानूनी प्रक्रिया में तेजी लाने की कोशिशों के बावजूद हर साल ऐसे अपराध क्यों बढ़ते जा रहे हैं? बलात्कार के अलावा अपहरण, हिंसा और हत्या की बढ़ती संख्या को देखते हुए कहा जा सकता है कि विकास और समृद्धि की हमारी यात्रा में देश की आधी आबादी और भविष्य की पीढ़ी को हम समुचित सुरक्षा और सम्मान देने में असफल रहे हैं| कुछ राज्यों में ऐसे अपराध अधिक अवश्य हैं, किंतु देश के हर हिस्से में महिलाओं और बच्चों को प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा है|
उदहारण के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस संदिग्ध मुठभेड़ों में पिछले कुछ वर्षों में 4000 से ज्यादा इंसानों को मार चुकी है| हर दिन, हर कुछ घंटों में, एक सी घटनाएं होती हैं और कुछ लाशें बरामद हो जाती हैं| कहानियां विचित्र मगर समरूपी हैं जैसे - वह पुलिस के कहने पर नहीं रुका और गोलियां चलाने लगा या राइफल छीनकर पुलिसकर्मियों पर झपटा और पुलिस द्वारा आत्मरक्षा के दौरान ढेर हो गया| मामले अदालतों में हैं, मगर अधिकतर में लीपापोती हो चुकी है| कई याचिकाएं खारिज भी हो चुकी हैं| मुख्यमंत्री की छवि कैसी भी हो, मगर क्या किसी सभ्य समाज में हत्या को स्टेट पॉलिसी बनाया जा सकता है? वैसे ही जैसे कुछ देशों ने आतंकवाद को बनाया है? क्या कोई विवेकशील व्यक्ति कहेगा कि देश आतंकी है, मगर नेता बड़ा ईमानदार है? क्या भागलपुर में 40 साल पहले 31 कथित अभियुक्तों की आंखें फोड़ने वाले पुलिसकर्मियों को या हैदराबाद में पुलिस द्वारा बलात्कारियों को मौत के घाट उतारना अथवा कथित चोरों के हाथ काटने वाले देशों तक को दुनिया में कोई न्यायपरक मानता है?
भारत में विचार का यह विषय गंभीर होता जा रहा है |कानून-व्यवस्था इस हद तक लचर हो चुकी है कि 2017 में 17.5 हजार से अधिक बच्चों के विरुद्ध बलात्कार हुआ, लेकिन साढ़े सात हजार मामलों में ही यौन अपराधों से बाल सुरक्षा के कानूनी प्रावधानों को लागू किया गया था| मामलों की भारी संख्या और सांस्थानिक समस्याओं के बोझ से दबी अदालतों का हाल तो यह है कि 2017 में बच्चों के विरुद्ध हुए बलात्कार के 90 प्रतिशत मामले लंबित थे| यह संख्या 51 हजार से भी अधिक है| बीते सालों में इनमें बढ़ोतरी ही हुई है| राज्यों के स्तर पर लापरवाही का आलम यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद अनेक राज्य ऐसे मामलों की स्थिति के बारे में या तो जानकारी ही नहीं देते या फिर देरी करते हैं|
बलात्कार के कुल लंबित मामलों की संख्या तो लगभग ढाई लाख है| यह हाल तब है, जब 2018 के आपराधिक कानूनों में संशोधन के साथ देशभर में एक हजार से अधिक फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन की योजना बनायी गयी थी और अब तक 195 ऐसे विशेष न्यायालय स्थापित हो चुके हैं| जब भी बलात्कार की दिल दहलानेवाली घटनाएं सामने आती हैं, आम तौर पर लोग क्षोभ व क्रोध में तात्कालिक न्याय की मांग करने लगते हैं और कई बार तो ऐसी मांगें बदले की भावना से प्रेरित होती हैं, पर हमें इस संबंध में तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए| पहली बात, दोषियों के लिए समुचित दंड का प्रावधान है और कुछ स्थितियों में मौत की सजा भी दी जा सकती है, लेकिन असली मसला समुचित जांच और त्वरित सुनवाई का है| हमें पुलिस और न्याय व्यवस्था को दुरुस्त करने को प्राथमिकता देनी चाहिए| दूसरी बात -बलात्कार व हिंसा के ऐसे मामलों में दोषियों की बड़ी संख्या परिजनों और परिचितों की है| इसलिए परिवार और समाज में संवेदनशीलता और सतर्कता को भी बढ़ाने की आवश्यकता है| और तीसरी और अंतिम बात राजनीति का विषय समाज में सुधार का प्रयास होना चाहिए, न कि सिर्फ कीचड़ उछालना |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।