भोपाल अपने अलग मिजाज का शहर है। इसके तौर-तरीके अलग रहे हैं। लोगों को पहचानने के भोपाल के फार्मूले पूरे देश में चर्चित थे और हैं। जामा मस्जिद के आसपास रात को रोशन होते भोपाल को जिसने देखा है उसके जहन में लोगो को पहचानने का यह फार्मूला अब भी मौजूद है। “मास्को में बारिश हो और भोपाल में जो छाता खोल ले वो सीपीआई का कामरेड और बीजिंग में बारिश के अंदेशे पर जो छतरी खोल कर खड़ा हो वो सीपीआईएम् का कामरेड।” लेकिन तब न तो कहने वाले बुरा मानते थे और न छतरी खोलने वाले। अब बहुत सी बातें बदल गई हैं, अब बातचीत का लहजा बदल गया है। एक अजीब सी कट्टरता घर कर रही है। सही मायने में जिनकी नाल (नरा) [PLACENTA] भोपाल में गड़ी है, वे इन दिनों भोपाल की शांति, सद्भाव और सहचरता को लेकर चिंतित हैं।
भावी दुष्परिणामों का साक्षात दर्शन भी हो रहे हैं। खिरनी वाले मैदान में हुआ प्रदर्शन और उसके बाद की धमकी-चमकी भोपाल की रवायत के खिलाफ है। मुद्दा -फ्रांस के खिलाफ है, जिसने अपनी संप्रभुता और बहुलतावाद की संस्कृति के रक्षण के लिए कुछ अहर्ताएं तय करने की कोशिश की है। जिसने अपनी संप्रभुता को हिंसक ढंग से प्रभावित करने वालों के खिलाफ आवाज उठायी है। नतीजा -सिर्फ आवाज देने मात्र से ही चंद लोगों में हिसंक और खतरनाक प्रवृत्ति सवार हो गयी। फ्रांस की उत्पादित वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाने और बहिष्कार करने की गोलबंदी सुनिश्चित हो रही है। कोई यह तो बताये भोपाल का इससे क्या सरोकार है ?
वैसे दुनिया के लिए खतरनाक बात यह है कि बायकाट कोई लोकतांत्रिक ढंग से नहीं हो रहा है बल्कि धार्मिक आधार पर हो रहा है। कुवैत, जार्डन, कतर और तुर्की में फ्रांस की उत्पादित वस्तुओं को माल और दुकानों से हटा दिया गया। जबकि तुर्की, ईरान और पाक ने सीधे तौर पर फ्रांस की संप्रभुता को चुनौती दी है।विरोध का तौर-तरीका दुनिया की शांति व सद्भाव के लिए एक खतरनाक चुनौती भी बन रहा है। तकलीफ यह है कि बायकाट का हथकंडा भोपाल में घृणा में भी तबदील हो रहा है।
बायकाट की जड़ में कार्टून विवाद ही है। फ्रांस की मशहूर पत्रिक शार्ली एब्दो ने कई साल पहले एक कार्टून प्रकाशित किया था। शार्ली एब्दो ने तब कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए ऐसे कार्टून का प्रकाशन कर वह अतिवादी मानसिकता का दमन करना चाहती है। जिसके बाद शार्ली एब्दो पत्रिका के कार्यालय पर आतंकवादी हमला हुआ। पूरे एक दर्जन लोग मारे गये। शार्ली एब्दो पत्रिका के संपादक सहित पूरी संपादकीय टीम को मौत के घाट उतार दिया गया। पत्रिका के कार्यालय को राख कर दिया गया।
भोपाल के वाशिंदे जिस बहुलतावाद की संस्कृति के सहचर हैं और जिसके लिए वर्षों राफ्ते कायम हुए हैं, वह तो खतरे में है, बहुलतावाद की जगह खतरनाक और हिंसक एकांगी संस्कृति ले रही है। इसमें अन्य विचारों के लिए कोई जगह नहीं है। धीरे-धीरे यह सोच बदल रही है कट्टर हो रही है। इस सोच के विरोध में भोपाल की मूल संस्कृति को जागना चाहिए। जब मूल संस्कृति जगती है, जब मूल संस्कृति का पुनर्जागरण शुरू होता है तो आयातित संस्कृति हमलावर होती है और उससे टकराव बढ़ता है। भोपाल को इससे बख्शो।
सभ्य दुनिया में हिंसक प्रवृत्तियां हर हाल में रोकी जायेंगी, विरोधियों को अपना व्यवहार अहिंसक बनाना होगा और उस एजेंडे को छोड़ना ही होगा। जुनून से फ्रांस में हिंसक प्रवृत्तियों के खिलाफ अभियान रुक जायेगा, ऐसा संभव नहीं है। लेकिन भोपाल जैसी गोलबंदी से ऐसे जुनून को ही खाद-पानी मिलेगा। ऐसे जूनून और धमकी- चमकी भोपाल की रवायत नहीं है। भोपाल बरसों से आज़ाद राजनीतिक सोच का नुमाईनंदा रहा है इसने वामपंथी विधायक और दक्षिण पंथी सांसद को एक साथ चुना है। हे! आज के नुमईन्दो, राजनीति करो, अपनी हद में रहो, भोपाल की रवायतों का गला मत घोंटो।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।