आरसीइपी समूह और भारत की दूरी - Pratidin

Bhopal Samachar
और  दुनिया के सबसे बड़े ट्रेड समझौते रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीइपी) ने १५  देशों के हस्ताक्षर के बाद मूर्तरूप ले लिया है| इसमें 10 आसियान देशों- वियतनाम, लाओस, म्यांमार, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाइलैंड, ब्रूनेई और कंबोडिया के अलावा चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं| भारत इसमें शामिल नहीं है | भारत के प्रधानमंत्री मोदी नवंबर,२०१९  में ही आरसीइपी में शामिल नहीं होने की बात कह  चुके है |इसी के प्रकाश में  एक वर्ष बाद अर्थात नवंबर, 2020 में फिर दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के संगठन (आसियान) सदस्यों के साथ मोदी ने स्पष्ट किया कि मौजूदा स्वरूप में भारत आरसीइपी का सदस्य बनने का इच्छुक नहीं है|भारत के मुताबिक, आरसीइपी के तहत देश के आर्थिक तथा कारोबारी हितों के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है|

वैसे आरसीइपी समूह के देशों में विश्व की लगभग ४७.६ प्रतिशत जनसंख्या रहती है, जिसका वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में करीब ३१.६ प्रतिशत और वैश्विक व्यापार में करीब ३०.८ प्रतिशत का योगदान है| आरसीइपी समझौते पर हस्ताक्षर के बाद बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को समर्थन देने में आसियान की प्रमुख भूमिका रहेगी|आरसीइपी के कारण एशिया-प्रशांत क्षेत्र में एक नया व्यापार ढांचा बनेगा और उद्योग कारोबार सुगम हो सकेगा, साथ ही कोविड-१९  से प्रभावित आपूर्ति शृंखला को फिर से खड़ा किया जा सकेगा| आरसीइपी के सदस्य देशों के बीच व्यापार पर शुल्क और नीचे आयेगा, जिससे समूह के सभी सदस्य देश लाभान्वित होंगे|

अभी तो इस समझौते के मौजूदा प्रारूप में आरसीइपी की मूल भावना तथा वे मार्गदर्शन सिद्धांत परिलक्षित नहीं हो रहे हैं, जिन पर भारत ने सहमति दी थी| इस समझौते में भारत की चिंताओं का भी निदान नहीं किया गया है| इस समूह में शामिल नहीं होने का एक कारण यह भी है कि आठ साल तक चली वार्ता के दौरान वैश्विक आर्थिक और व्यापारिक परिदृश्य सहित कई चीजें बदल चुकी हैं तथा भारत इन बदलावों को नजरअंदाज नहीं कर सकता है|

भारत का मानना है कि आरसीइपी भारत के लिए आर्थिक बोझ बन जाता| इसमें भारत के हित से जुड़ी कई समस्याएं थीं और देश के संवेदनशील वर्गों की आजीविका पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ता|

वैसे भारत के घरेलू उद्योग और किसान इस समझौते का विरोध कर रहे थे, क्योंकि उन्हें चिंता थी कि इसके जरिये चीन और अन्य आसियान के देश भारतीय बाजार को अपने माल से भर देंगे| इसके अलावा चीन के बॉर्डर रोड इनीशिएटिव (बीआरआइ) की योजना, लद्दाख में उसके सैनिकों की घुसपैठ, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की बढ़ती हैसियत में रोड़े अटकाने की चीन की प्रवृत्ति ने भी भारत को आरसीइपी से दूर रहने पर विवश किया|वेसे भी भारत ने जिन देशों के साथ एफटीए किया है, उनके साथ व्यापार घाटे की स्थिति और खराब हुई है| मसलन, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ भी भारत का एफटीए है, लेकिन इसने भारतीय अर्थव्यवस्था को अपेक्षित फायदा नहीं पहुंचा है|

आरसीइपी के मौजूदा स्वरूप में भारत के प्रवेश से चीन और आसियान देशों को कारोबार के लिए ऐसा खुला माहौल मिल जाता, जो भारत के अनुकूल नहीं होता| स्पष्ट है कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के कृषि और दूध उत्पादों को भी भारत का विशाल बाजार मिल जाता, जिनसे घरेलू कृषि और दूध बाजार के सामने नयी मुश्किलें खड़ी हो जातीं| यद्यपि अब आरसीइपी समझौता लागू हो चुका है,लेकिन आर्थिक अहमियत के कारण भारत के लिए विकल्प खुला रखा गया है|  यदि अब भारत आरसीइपी में शामिल होना भी चाहे तो राह आसान नहीं होगी, क्योंकि चीन तमाम बाधाएं पैदा कर सकता है| वैश्विक बाजार में भारत को निर्यात बढ़ाने के लिए नयी तैयारी के साथ आगे बढ़ना होगा| कोविड-१९ की चुनौतियों के बीच आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत भारत सरकार संरक्षण नीति की डगर पर आगे बढ़ी है|इसके लिए आयात शुल्क में वृद्धि का तरीका अपनाया गया है| आयात पर विभिन्न प्रतिबंध लगाये गये हैं| 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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