बड़ी मुश्किल से समाज का यह मिथक टूटने लगा है कि जिस महिला का पति परिवार के योगक्षेम की सुचारू व्यवस्था करता हो उसे नौकरी के लिए घर से बाहर निकलने की जरूरत नहीं है | इसके विपरीत कई बार महिलाओं को अपने की कैरियर कुर्बानी परिवार संभालने के लिए देना होती है | आजकल परित्यक्त महिलाओं की संख्या में भी बढ़ोतरी हो रही है |परिवार और बच्चों के साथ घर की जिम्मेदारी का बोझ ढोनेवाली महिलाएं अक्सर प्रवीण और श्रेष्ठ कार्यबल का हिस्सा बनने से वंचित रह जाती हैं| अक्सर यह विषय पर चर्चा में महिलाओं का नकारात्मक चित्रण ही किया जाता रहा है |
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार बच्चों की देखभाल के लिए अपने कैरियर को दांव पर लगानेवाली कामकाजी महिलाओं के हालातों का भी संज्ञान लिया है| न्याय मूर्ति इंदु मल्होत्रा और आरएस रेड्डी की खंडपीठ ने कहा है कि परित्यक्ता पत्नी के गुजारा-भत्ते को निर्धारित करते समय जरूरी तौर पर उसके करियर की कुर्बानी को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए, ताकि वह वैवाहिक घर जैसा ही जीवन जी सके|आमतौर पर परित्यक्ता पत्नी के लिए निर्वाह भत्ते को तय करते समय अदालतें केवल पति की आमदनी और संपत्तियों पर ही विचार करती हैं|आधुनिक समाज में कामकाजी महिलाओं के सामने अनेक तरह की चुनौतियां हैं| संबंधों में बिखराव के बाद जीवनयापन के लिए दोबारा नौकरी हासिल कर पाना आसान नहीं होता| सर्वोच्च न्यायालय का यह कथन स्वागतयोग्य है कि परित्यक्ता पत्नी के साथ रहनेवाले बच्चों की पढ़ाई के खर्च का भी कुटुंब अदालतों द्वारा संज्ञान लेना जरूरी है| आमतौर पर बच्चों की पढ़ाई का खर्च को विवाद का विषय बन दिया जाता है और पिता द्वारा कामकाजी माँ को आधा खर्च देने को विवश किया जाता रहा है|
परित्यक्त महिलाओं को मांग के अनुरूप नये कौशल को प्राप्त करने लिए उन्हें कई बार दोबारा प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, जो उम्र के किसी पड़ाव पर आसान नहीं होता है| यही वजह है कि वर्षों के अंतराल के बाद उम्रदराज महिलाएं बामुश्किल ही दोबाराअपने उस कामकाज का हिस्सा बन पाती हैं, परित्यक्त महिलाओं के साथ अपराधों की भी अपनी कहानी है| इन्हीं वजहों से कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी सीमित होती जाती है| सर्वोच्च न्यायालय का यह कथन अब नजीर हो गया है कि परित्यक्ता पत्नी के साथ रहनेवाले बच्चों की पढ़ाई के खर्च का भी कुटुंब अदालतों द्वारा संज्ञान लिया जाये |
न्यायालय ने यह भी कहा है कि अगर पत्नी की पर्याप्त आमदनी है, तो बच्चों की पढ़ाई का खर्च दोनों पक्षों में अनुपातिक तौर पर साझा होना चाहिए| यद्यपि हिंदू विवाह अधिनियम और महिलाओं की घरेलू हिंसा से सुरक्षा अधिनियम गुजारा-भत्ता प्रदान करने की तारीख को तय नहीं करता है, यह पूरी तरह से कुटुंब अदालतों पर निर्भर होता है|
इसके लिए न्यायालय का निर्देश है कि परित्यक्ता द्वारा अदालत में याचिका दाखिल करने की तिथि से गुजारा-भत्ता दिया जाना चाहिए| इसका भुगतान नहीं करने पर पति की गिरफ्तारी और संपत्तियों को जब्त भी किया जा सकता है. हालांकि, निर्वाह भत्ते की आस में तमाम याचिकाएं अदालतों में वर्षों से लंबित हैं|
सम्पूर्ण समाज को इस बात को स्वीकार ही नहीं करना चाहिए बल्कि उस दृश्य को बदलने की दिशा में प्रयास करना चाहिए जिसमें नियम-कानून का सुनिश्चित हो | अभी कई नियम और कानून समुचित अनुपालन के आभाव मात्र कागज का पुलिंदा साबित हुए हैं |इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के परित्यक्त महिलाओ के मामले दिए गये निर्देश बहुत ही मुनासिब है| इन निर्देशों में समयबद्ध निर्वाह भत्ते का भुगतान की बात भी की गई है| निर्वाह भत्ते का समयबद्ध भुगतान कई असहायों का जीवन दोबारा पटरी पर लौटा सकता है|
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करें) या फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।