किसी भी देश के विकास के पैमाने का जरूरी पायदान, उच्च शिक्षा होती है। कहने को भारत में 23 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) हैं, जो इस इस साल 1500 से अधिक छात्र-छात्राओं को प्रवेश देंगे, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) में सिर्फ एक राज्य विश्वविद्यालय, एरिजोना स्टेट विश्वविद्यालय, हर साल 13500 लोगों को स्नातक कक्षाओं में प्रवेश देता है। हमारे देश में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का बहुत कम हिस्सा उच्च शिक्षा पर खर्च होता है। अभी हाल यह है कि भारत में 28 प्रतिशत लोग ही उच्च शिक्षा की दहलीज पर पहुंच पाते हैं। भारत वैश्विक औसत से 38 प्रतिशत और चीन से 51 प्रतिशत पीछे है।वर्तमान में ये संस्थान सरकार से 80 प्रतिशत धन प्राप्त करते हैं। अपनी वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता को सुरक्षित करने के लिए इन संस्थानों को 21वीं सदी के माकूल वित्तीय मॉडल की खोज करनी चाहिए।
भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों की बेहतरी के लिए आज दो बड़ी जरूरत हैं | एक -संरचनात्मक कायाकल्प, दो- संस्थानों के लिए एक विविध वित्तीय मॉडल का निर्माण। भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) उच्चतर ट्यूशन फीस या शिक्षण शुल्क लगाकर वित्तीय स्वायत्तता प्राप्त करने में सक्षम रहे हैं। इन संस्थानों के खर्च में शिक्षण शुल्क का योगदान 85 प्रतिशत तक है। क्या सिर्फ ज्यादा शुल्क ही उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए व्यावहारिक वित्तीय मॉडल है? यदि हम अलग-अलग देशों के सर्वोत्तम मॉडल का पालन करते हैं और इन मॉडल का सही संयोजन करते हैं, तो कतई जरूरी नहीं कि हम उच्च शिक्षण शुल्क के जरिए ही संस्थान का खर्च निकालें। प्रति छात्र कम निवेश के नतीजों को हम उच्च शिक्षा की वैश्विक रैंकिंग में देख सकते हैं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) उच्च शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद का एक निश्चित प्रतिशत आवंटित करके इस मामले को हल करने की कोशिश कर रही है। यह नीति उच्च शिक्षा संस्थानों को प्रशासनिक स्वायत्तता देने की भी बात करती है।
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया में ज्यादातर विश्वविद्यालयों की आय में ट्यूशन फीस का योगदान एक चौथाई तक है, जबकि हमारे देश में आईआईटी में इसका सिर्फ छह से सात प्रतिशत तक योगदान रहता है। यह गौर करने की बात है, छात्रों का लगभग एक तिहाई हिस्सा ही ट्यूशन फीस की ऊपरी सीमा के हिसाब से भुगतान करता है। अन्य छात्र अपनी सामाजिक श्रेणी और आर्थिक स्थिति के आधार पर बहुत कम राशि का भुगतान करते हैं। यह काम एक वित्तीय संरचना के माध्यम से किया जा सकता है। छात्रों व उनके परिवारों को अतिरिक्त शुल्क मुक्त और ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध कराते हुए उनकी वित्तीय बाधाओं को दूर किया जा सकता है।
भारत में एक तिहाई आय अनुसंधान गतिविधियों से आ सकती है। हालांकि, अनुसंधान मुख्य रूप से सरकार द्वारा प्रायोजित होते हैं। यूसी बर्कले, हार्वर्ड और इकोले पॉलीटेक्निक फेडरेल डी लुसाने जैसे विश्वविद्यालय अपनी शोध निधि का एक तिहाई हिस्सा गैर-सरकारी स्रोतों से ही जुटाते हैं। भारत में आईआईटी में अनुसंधान मुख्य रूप से सरकार द्वारा प्रायोजित हैं। अपर्याप्त सरकारी अनुदानों की वजह से अनुसंधान सुविधाओं का प्रबंधन व संचालन अहम चुनौती बना हुआ है। अनुसंधान के खर्चों में अपेक्षित वृद्धि के साथ आईआईटी निजी क्षेत्र से धन जुटा सकता है|
हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड और मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने दुनिया भर के विश्वविद्यालयों द्वारा अपनाई गई अक्षय निधि की अवधारणा को आगे बढ़ाया है। अक्षय निधि निवेश से प्राप्त लाभ आय में एक तिहाई तक आसानी से योगदान कर सकते हैं। अक्षय निधि न सिर्फ पूर्व छात्रों के जरिए, बल्कि उद्योगों, परोपकारी दानदाताओं और सरकारों की मदद से भी बनाई जा सकती है। भारत में सफल अक्षय निधि मॉडल तब ही सफल हो सकता है जब उसे नौकरशाही से दूर रखा जाये |ऐसे में उच्च शिक्षण संस्थानों के वित्तीय मॉडल में आय के तीन स्रोतहो सकते हैं , पहला, विलंबित ट्यूशन फीस भुगतान। दूसरा, अनुसंधान अनुदान/स्टार्ट-अप्स में निवेश/ प्रौद्योगिकी हस्तांतरण शुल्क और तीसरा, अक्षय निधि में दान। यह फैसला हमे लेना है, हम उच्च शिक्षा को कहाँ ले जाना चाहते हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।