हाल ही में आई एक रिपोर्ट का कहना है शहरों को विकास के नाम पर नगर नियोजक खराब कर रहे हैं |इस राय के पीछे उनका तर्क बुनियादी सुविधाओं का निरंतर महंगा और दुर्लभ होना है |इस रिपोर्ट के अनुसार २०४० तक भारत को अपनी बुनियादी सुविधाओं के लिए ४.५ खरब अमेरिकी डॉलर की जरूरत होगी, जबकि केन्या को २२३ अरब और मेक्सिको को १.१ खरब डॉलर की। इसका मतलब है कि अधिकतर शहरों में छोटे-छोटे इलाके ही होंगे, जिनमें बढ़िया बुनियादी सुविधाएं हों और इसी वजह से यहां जमीन की कीमतें आसमान छूती हैं।
वैसे दुनिया में चंद सर्वाधिक महंगे इलाके भारत में हैं। निवेश की कमी के कारण शहर का बाकी इलाका अनियमित तरीके से विकसित होता है और इन स्थितियों में गरीब आबादी आम तौर पर खाली पड़ी जमीन पर जा बसती है जहां न सीवर होता है और न पानी की पाइपलाइन। उन्हें पता होता है कि चूंकि ये जमीन उनकी नहीं है, उन्हें कभी भी हटाया जा सकता है, लिहाजा वे अस्थायी घर बना लेते हैं, जो चमक-दमक भरे शहर के लिए धब्बे की तरह होते हैं।सारे विकासशील देशों की झोपड़पट्टियां ऐसी ही होती हैं।
दुनिया में सभी विकास सिद्धांतों का केंद्रीय भाव है कि “सारे संसाधन उस ओर लगते हैं जहां उनका अधिकतम उत्पादक इस्तेमाल हो सके।“ जब तक बाजार सही तरीके से काम करते हैं, यही स्वाभाविक अवधारणा होती है। उत्कृष्ट कंपनियों को उत्कृष्ट लोगों की सेवाएं लेनी चाहिए। जमीन के सर्वाधिक उपजाऊ टुकड़ों पर सर्वाधिक सघनता के साथ खेती होनी चाहिए, जबकि कम उपजाऊ टुकड़ों का उपयोग उद्योगों के लिए होना चाहिए। जिनके पास उधार पर देने के पैसे हैं, उन्हें सर्वोत्कृष्ट उद्यमियों को पैसे देने चाहिए। लेकिन यह हमेशा सच नहीं होता। कुछ कंपनियों के पास जरूरत से अधिक कर्मचारी होते हैं, जबकि कुछ नियुक्ति की स्थिति में नहीं होतीं। कुछ उद्यमियों के पास जबर्दस्त आइडिया होते हैं, लेकिन इन्हें जमीन पर उतारने के पैसे नहीं होते, जबकि कुछ लोग जो कर रहे होते हैं, उसमें दक्ष नहीं होने के बावजूद उसे जारी रख पाते हैं। माइक्रो इकॉनोमिक्स में इसे त्रुटिपूर्ण आवंटन (मिस ऐलोकेशन) कहते हैं।...
एड ग्लीजर ने अपनी बेहतरीन पुस्तक ‘ट्रियम्फ ऑफ दि सिटी’ में लिखा है कि स्थिति को टाउन प्लानरों ने और भी खराब कर दिया है जो शहर को हरा-भरा रूप देने की जगह मघ्यवर्ग के लिए बहुमंजिली इमारतों की बगल में घनी आबादी बसाने पर जोर देते हैं।कम आय वाले प्रवासियों के लिए इस तरह की खराब नीतियां मुश्किल हालात पैदा कर देती हैं। अगर वह भाग्यशाली है तो किसी झुग्गी में ठिकाना पा सकता है, काम की जगह तक पहुंचने के लिए घंटों की यात्रा कर सकता है या तो वह हालात से लाचार होकर जहां काम करता है, उसी इमारत की फर्श पर सो सकता है; जिस रिक्शे को चलाता है, उसी पर सो सकता है; जिस ट्रक पर काम करता है, उसके नीचे सो सकता है या तो जिस फुटपाथ पर अपना खोखा वगैरह लगा रखा है, वहीं रात बिता सकता है।... अकुशल प्रवासियों को पता होता है कि शुरू में उन्हें वही काम मिल सकता है जिसे कोई करना न चाहता हो। अगर आपको किसी ऐसी जगह छोड़ दिया जाए जहां कोई विकल्प न हो तो आप उसी में गुजारा करेंगे। बड़ा मुश्किल होता है अपने परिवार-दोस्तों को छोड़कर दूर जाकर किसी पुल के नीचे सोना, फर्श साफ करना।...
भारत की अर्थव्यवस्था ऐसी है जिसमें संभावित उद्यमियों की बड़ी संख्या है और तमाम ऐसे अवसर शेष हैं जिनका उपयोग किया जाना बाकी है। अगर यह सही है, तो भारत की चिंता यह होनी चाहिए कि क्या होगा जब ये अवसर खत्म हो जाएंगे। दुर्भाग्य से, जैसा कि हम नहीं जानते हैं कि विकास कैसे किया जाता है, इसके बारे में भी हमें बहुत कम जानकारी है कि कुछ देश क्यों अटक गए और कुछ क्यों नहीं अटके या कोई देश इसमें से कैसे बाहर निकलता है। दक्षिण कोरिया क्यों बढ़ रहा है और मेक्सिको ऐसा क्यों नहीं कर पा रहा है?
वास्तविक खतरा इस बात का है कि तेज विकास के चक्कर में भारत ऐसी नीतियों पर न चल पड़े जिसमें भावी विकास के नाम पर गरीबों को संकट का सामना करना पड़े। विकास की दर बनाए रखने के लिए “व्यापार अनुकूल” होने कीआवश्यकता को वैसे ही परिभाषित किया जा सकता है जैसा रीगन-थैचर युग में अमेरिका और ब्रिटेन में होता था, यानी अमीरों का पक्ष लेने वाली नीतियां जो गरीब-विरोधी हों और व्यापक जन समुदाय की कीमत पर कुछ खास लोगों को समृद्ध करती हों।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।