देश की वित्त मंत्री अभी से अभूतपूर्व बजट का आश्वासन एक बड़े व्यय पैकेज का संकेतक है। अभी से निराशाजनक पहलू की ओर इशारा करना भी जरूरी है। पहली बात, भले ही अगले साल तेज बढ़ोतरी की अपेक्षा है, लेकिन यह साल मंदी का है। हमारे सकल घरेलू उत्पादन और राष्ट्रीय आय में आठ से दस प्रतिशत की कमी आयेगी। अगले साल यदि 10 से 12 प्रतिशत की भी वृद्धि होती है, तब भी दो सालों तक आय वृद्धि शून्य से थोड़ी ही ऊपर रहेगी। दूसरी बात, कड़े लॉकडाउन और उससे पहले के चार सालों में गिरावट के कारण संभावित आर्थिक वृद्धि दर गिरकर संभवत: पांच प्रतिशत के आसपास आ गयी है।
अब इसके ऊपर की कोई भी बढ़त चिंताजनक हो सकती है। इसलिए हमें मुद्रास्फीति पर नजर रखनी होगी, जो घरेलू बजट और व्यावसायिक भावना को नुकसान पहुंचा सकती है। पिछले 12 महीनों में, मार्च को छोड़ कर, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर छह प्रतिशत से ऊपर रही है। यह रिजर्व बैंक की बर्दाश्त करने लायक सीमा से ऊपर है। अपने नरम मौद्रिक रवैये के बावजूद रिजर्व बैंक देर-सबेर नकदी की आपूर्ति पर अंकुश लगाना शुरू कर सकता है। तीसरी बात, देशमे कर्ज की अनुशासनहीनता को लेकर बहुत अधिक सहिष्णुता रही है। इसलिए लंबे विलंब और फंसे हुए कर्ज की पुनर्संरचना के बाद संभव है कि भारतीय बैंकिंग सेक्टर वास्तविकता से सामना कर सके। सकता हमें फंसे हुए कर्ज के अनुपात में तेज वृद्धि के लिए तैयार रहना चाहिए। जिससे निबटने के लिए सरकार को पर्याप्त पूंजी मुहैया करानी पड़ेगी।
चौथी और सबसे अहम बात है, शिक्षा और स्वास्थ्य पर चुपचाप पड़ता खतरनाक असर। साल 2020 के मानव विकास सूचकांक में 189 देशों में भारत 131वें पायदान पर है। हमारा देश दो सालों में दो सीढ़ी नीचे आया है। इसमें श्रीलंका 72वें और चीन 85वें स्थान पर हैं। सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि भारत के कार्य बल का केवल 20 प्रतिशत हिस्सा ही कुशल कहा जा सकता है। दुर्भाग्य भारत सूडान, कैमरून और लाइबेरिया जैसे देशों की कतार में है। हमारे सभी दक्षिण एशियाई पड़ोसी हमसे आगे हैं।
भारत की 42 प्रतिशत आबादी बेहद चिंताजनक स्थिति में है यानी वह 1.9 डॉलर की रोजाना आमदनी के गरीबी स्तर से थोड़ा ही ऊपर है। महामारी, जीने के सहारे का छिन जाना या परिवार में बीमारी जैसे कारक इन्हें गरीबी रेखा से नीचे ले जा सकते हैं। महामारी और लॉकडाउन ने असंगठित क्षेत्र और सूक्ष्म व छोटे उद्यमों को बुरी तरह प्रभावित किया है। सबसे अधिक असर बच्चों पर पड़ा है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की हालिया रिपोर्ट में बच्चों में गंभीर कुपोषण को रेखांकित किया गया है। इसमें सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि बच्चों की बढ़त रुकने या उनका कम वजन होने के मामले 17 में से 14 राज्यों में बढ़ गये हैं। यह तब हुआ है, जब स्वच्छता और साफ पेयजल की उपलब्धता बढ़ी है।
यह सब स्पष्ट तौर पर अर्थव्यवस्था में गिरावट और आय के स्रोतों के कम होने के परिणाम हैं। उदाहरण के लिए, लॉकडाउन में स्कूलों की बंदी से मिड-डे मील भी नहीं मिला। गरीब परिवारों के बहुत से बच्चों के लिए दिनभर में वही एकमात्र भोजन मिल पाता था। वित्तीय मजबूरियों के कारण बाल पोषण योजनाओं के खर्च में भी कटौती हुई है।
कोरोना महामारी ने 29 करोड़ भारतीयों की शिक्षा को भी प्रभावित किया है। एक रिपोर्ट के अनुसार, छह से दस साल आयु के 5.3 प्रतिशत बच्चों के स्कूल छूट गये हैं। बहुत-से बच्चे परिवार की आमदनी जुटाने में सहयोग कर रहे हैं। जो बच्चे स्कूलों में हैं, उनमें से 38.2 प्रतिशत के पास स्मार्टफोन की सुविधा नहीं है सो, ऑनलाइन शिक्षा से बड़ी संख्या में बच्चे वंचित हैं। इसके बावजूद सरकार सुनहरे भविष्य के सपने दिखा रही है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।