देश का किसान आन्दोलन संभल नहीं रहा है। अगर इसमें राजनीति का पुट नहीं होता तो आन्दोलन संभल जाता। देश का दुर्भाग्य है, सारे राजनीतिक दल कहते तो हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है परन्तु कोई भी किसानी और किसान को सम्मान नहीं देना चाहता। देश में एक किसान नेता चौधरी चरण सिंह हुए हैं, किसानी के बारे में उन्होंने वर्षों पहले जो कुछ कहा था। वो सब आज भी वैसा ही है। किसी ने अब तक कुछ ख़ास करने की कोशिश नहीं की। जो प्रयास हुए वे राजनीति की भेट चढ़ गये और चढ़ रहे हैं।
चौधरी चरण सिंह लिखते हैं “किसान किसी भी राष्ट्र का प्रमुख आधार है। वह किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का अति-महत्वपूर्ण सूत्र है। यह किसान ही है, जिसे सर्वाधिक श्रम करना पड़ता है, जो अपनी उपज का अधिकांश अपने देशवासियों को पोषण हेतु अन्न देता है और अपने लिए बहुत थोड़ा हिस्सा रखता है। यूरोप और अन्य विदेशी मुल्कों में सरकारें अपने किसानों की स्थिति में सुधार पर बहुत ध्यान देती रही हैं। पश्चिमी देशों की सरकारों ने बिना समय बर्बाद किए विश्व बाजार के बदलते हालात को देखते हुए कृषकों की मदद की स्थिति में आने के लिए अधिनायकीय शक्ति हासिल की है और अनेक प्रस्ताव पारित किए हैं। परिणाम यह रहा है कि पश्चिमी देशों के किसानों ने मंदी पर काबू पा लिया है,किंतु भारतीय किसान की हालत क्या है?” वर्षों पहले किये गये इस आकलन में क्या बदला विचार का विषय है, परन्तु न तो सरकार को और प्रतिपक्ष को इसकी चिंता है। सब राजनीति- राजनीति खेल रहे हैं।
आंकड़ों के अनुसार,१९३० से उसकी आय ५३ प्रतिशत से भी अधिक नीचे जा चुकी थी, आज का अनुमान तो हैरान करने वाला है, किंतु उस पर दायित्व-भार वही है, जो पहले था। समय गुजरने के साथ किसान को रौंद डालने वाले ऋण और ऋणों की ब्याज अदायगी में अक्षमता के कारण इसमें बढ़ोतरी हुई है। चुनाव के दारण ऋण माफ़ी के खेल भी होते हैं | विदेशी बाजार उसके लिए बंद हो चुके हैं। संक्षेप में, उसकी छोटी सी नौका पर इतना भार लदा है कि वह डूब रही है और यदि उसके लिए बडे़ पैमाने पर कदम नहीं उठाए जाते, तो हमें इतिहास के सबसे बडे़ सामाजिक विप्लव के लिए तैयार रहना चाहिए।
चौधरी चरण सिंह ने ततसमय कहा था “वह स्थान मुहैया कराना राज्य का काम है, जहां लोग मानवीय जरूरतों की वस्तुओं को बेचने और खरीदने की नीयत से इकट्ठे हो सकें और देखना यह है कि ऐसे स्थान का प्रबंध ईमानदारी से हो रहा है और यह भी कि प्राथमिक उत्पादक को उसके उत्पाद का उचित प्रतिफल मिलता है।“
लेकिन अब तक हुआ क्या ? सरकार ने साड़ी किसानी को बड़े बाजार की तरफ मोड़ दिया। वैसे की हमारे बाजारों की हालत निराशाजनक है और यह बेहद जरूरी है कि वहां व्याप्त बुराइयों तथा गड़बड़ियों को समाप्त करने के लिए कुछ आवश्यक कदम तुरंत उठाए जाते , जो तत्व किसानों को आर्थिक घाटा पहुंचाते हैं। देशी बाजार में बदनामी दिलाती है और इस प्रकार हमारे विदेशी व्यापार में गिरावट का कारण बनती है।...
चौधरी जी फिर याद आते हैं। उन्होंने कहा था कि “बाजार में पहुंचते ही खेतिहर का सामना होता है आढ़तिया से, फिर रोला से, जो उसकी उपज को साफ करता है, तौलने वाले से, ओटा से, जो थैले का मुंह खुला रखे रहता है और पल्लेदार से, जो थैलों को ढोता है। इन सभी को हमेशा बिना किसी अपवाद के मेहनताना खेतिहर-विक्रेता को ही देना पड़ता है। उन बाजारों में, जहां व्यापार संघ या बाजार पंचायत होती है, जैसा कि मुनीम जैसे छोटे कर्मचारियों, पानी पिलाने वाले, चौकीदार, रसोइया इत्यादि का भुगतान आढ़तिया करता है। हालांकि, भारी तादाद में मौजूद उन बाजारों में, संगठित व्यापार का अस्तित्व ही नहीं होता। इस आशय की कटौती जो बहुधा काफी बड़ी राशि होती है, ‘मौजूदा हालत में किसान कुछ मामलों में उपभोक्ता द्वारा चुकाए गए एक रुपये में से नौ आना ही प्राप्त कर पाता है।’ इसका अर्थ यह है कि उपभोक्ता द्वारा चुकाए गए गेहूं के मूल्य का ४२ प्रतिशत बिचौलिए के पास चला जाता है।“
स्थिति आज भी लगभग वही है किसान की समस्या हल करने के लिए सरकार और किसान के बीच सीशी बात होना चाहिए और नकली किसान भी है। जिनका खेती से नहीं जमीन और मुनाफे से ही सरोकार है। एक बार राजनीति छोड़ कर बात करना जरूरी है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।