देश के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए समन्वित पद्धति जरूरी - Pratidin

Bhopal Samachar
भारत के सामने समस्या है | बढती जनसंख्या और सीमित संसाधनों के बीच चिकित्सा | मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल  और एक जिले शहडोल को छोड़ दें तो प्रदेश के चिकित्सकों ने देश के एलोपैथिक चिकित्सकों ने कोरोना संक्रमण के खिलाफ मजबूत लड़ाई लड़ी है। सैकड़ों चिकित्सकों ने अपनी जान भी गंवाई है। कृतज्ञ राष्ट्र ने भी हवाई जहाजों व हेलीकॉप्टर से पुष्प बरसाकर न केवल उनका सम्मान किया बल्कि समाज में उनके प्रति सकारात्मक सोच विकसित करने का प्रयास भी किया।इस सराहना के दौर में कुछ ऐसे चिकित्सक भी दिखे जिन्होंने आपदा का भरपूर लाभ उठाया | ऐसे ही लोगों के कारण कुछ अप्रिय हमेशा घटा है |

इसी अप्रिय को रोकने के लिए चिकित्सकों के काम में बाधा डालने और हमला करने वालों के खिलाफ भी सख्त कानून क्रियान्वित हुए। एलोपैथी चिकित्सा में लोप होता सेवा का भाव और बढ़ता बाजारवाद  सरकार और समाज को नये प्रयोग करने को मजबूर कर रहा है | ऐसे ही एक निर्णय  के बाद एलोपैथी चिकित्सक सरकार के एक निर्णय के  खिलाफ सड़कों पर थे बात ये थी कि आयुर्वेद के परास्नातक छात्रों को सीमित सर्जरी करने की अनुमति प्रदान करना । बीते शुक्रवार देशभर के चिकित्सकों ने सांकेतिक आन्दोलन किया विरोध दर्ज कराया । आईएमए इसे आधुनिक चिकित्सा प्रणाली का अहित करने तथा लोगों के जीवन से खिलवाड़ के रूप में देख रही है। निस्संदेह विरोध से इतर एक हकीकत यह भी है कि देश में पर्याप्त चिकित्सकों व स्वास्थ्य कर्मियों की कमी है। खासकर ग्रामीण इलाकों व दूरदराज के इलाकों में यह समस्या जटिल है, जहां आमतौर पर कुशल चिकित्सक भी जाने से परहेज करते हैं। संभव है सरकार की सोच में कहीं यह विचार रहा होगा कि एलोपैथिक उपचार पर भारी दबाव को कुछ इस तरह के प्रयासों से कम किया जा सकेगा। साथ ही नीम-हकीमों के चंगुल से लोगों को बचाना चाहा होगा।

कोई भी इस बात से इंकार नहीं करता कि प्राचीन भारत में एक समृद्ध चिकित्सा व्यवस्था रही है जो सदियों बाद वक्त के थपेड़ों और गुलामी के दौर में हाशिये पर आ गई। फिर भी देश में आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा जैसी समानांतर चिकित्सा व्यवस्थाएं किसी न किसी रूप में विद्यमान रही हैं लेकिन विरोध करने वाले एलोपैथिक चिकित्सक आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा की क्षमता पर सवाल उठाते हैं। कहा जाता है कि उसमें बड़ी सर्जरी और शारीरिक विच्छेदन की व्यवस्था नहीं रही है। निस्संदेह किसी भी चिकित्सा प्रणाली के क्रियान्वयन के समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि उपचार वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरे ताकि रोगियों के जीवन से खिलवाड़ न हो।

बहरहाल, पेशेगत प्रतिस्पर्धा से इतर हमें गौरवशाली अतीत की ओर भी नजर डालनी चाहिए। यह भी कि जहां चरक संहिता और अष्टांग संग्रह औषधि विज्ञान से संबंधित हैं वहीं सुश्रुत संहिता मुख्य रूप से शल्य ज्ञान पर आधारित रही है। सुश्रुत को भारत में शल्य चिकित्सा का जनक माना जाता है और उनकी रचनाएं सुश्रुत संहिता के रूप में संकलित हैं। भारत में आयुर्वेदिक चिकित्सकों की वर्षों पुरानी मांग रही है कि उन्हें क्षारसूत्र आदि सीमित शल्य क्रियाओं से बढ़कर कुछ और अधिकार दिये जायें। अब आयुष मंत्रालय ने परास्नातक स्तर पर सीमित मामलों में सर्जरी की अनुमति दी है। बहरहाल, सरकार के इस कदम से उत्पन्न आशंकाओं का निराकरण भी जरूरी है। कोशिश हो कि देश के हर व्यक्ति को कारगर चिकित्सा मिले और उपचार विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरे।

केंद्र और राज्य सरकारों को आपस में मिलकर एक समन्वित कार्यक्रम बनाना चाहिए | जिसका शुद्ध उद्देश्य मानव कल्याण होना चाहिए | अभी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली पर बाज़ार वाद छाया हुआ है | एलोपैथिक अस्पताल और चिकित्सा महाविद्यालय में शिक्षा के लिए या उपचार के लिए प्रवेश मुश्किल होता जा रहा है | बढती जनसंख्या से निबटने के लिए वैकल्पिक उपचार पद्धतियों को मजबूत करना होगा फ़िलहाल तो यही संभव है |
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करेंया फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए
आप हमें ट्विटर और फ़ेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!