बंद कीजिये, किसानों से कबड्डी-कबड्डी- Pratidin

Bhopal Samachar
सरकार और किसानों के बीच बातचीत नहीं हो पा रही है। बिना रेफरी के चलती कब्बडी अब रण में बदल रही है। सर्व मान्य सत्य और तथ्य भी है कि अन्याय और शोषण की पराकाष्ठा हमेशा बदलाव को आवाज देती है। इसलिए सरकार को सोचना चाहिए जब तंत्र बेदम हो जाये तो इसे समाप्त कर एक नये तंत्र की स्थापना करना उसका प्राथमिक कर्तव्य है। अफ़सोस सरकार निदान खोजने की जगह कबड्डी–कबड्डी कर रही है। अफ़सोस यही नहीं सारी सरकारें यही करती रही हैं।

दिसम्बर का महीना विदा होने को है। सितंबर अंत से पंजाब और हरियाणा से किसान आंदोलन उभर आया था। उसका आज दिख रहा स्वरूप एक दिन में नहीं बना। जिसमें बड़ी संख्या में किसान पैदल या अपनी ट्रैक्टर-ट्रॉलियों पर सवार होकर देश की राजधानी की सीमा तक जा पहुंचे। इनके साथ उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसानों ने भी स्वर मिलाया। इनकी प्रशंसा करना होगी, यह एक अजब शान्तिप्रिय अनुशासित आंदोलन है, जिसका संज्ञान आज विश्व लेने लगा है। सबको मालूम होना चाहिए कि इतना धैर्य और शांति सिर्फ गाँधी के देश में ही संभव है।

सबको मालूम है अगली –पिछली सरकारों से उनकी बात दर बात होती रही। जो कानून उनकी आय को दुगना करने के लिए बनाये गये थे या फसलों की खरीद-बेच को शोषण रहित बनाने के लिए एक नियमित मंडियों के साथ वैकल्पिक निजी मंडियों की स्थापना का उद‍्घाटन थे, उन्हीं को आक्रोशित धरती पुत्र कह रह हैं कि देश के अस्सी प्रतिशत अढ़ाई हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसान को कार्पोरेट घरानों के रहमोकरम पर छोड़ा जा रहा है। यह एक अजब स्थिति है, जिसमें दोनों पक्ष अपने आपको सही और दूसरे को गलत, अपने आपको बदलाव से प्रतिबद्ध और दूसरे पक्ष को प्रतिक्रियावादी बता रहे हैं। दोनों ओर से संवाद की स्थिति का आह्वान हो रहा है, लेकिन कोई पक्ष भी लोचशील होकर किसी सर्व स्वीकार्य निर्णय को अपनाने के लिए तैयार नहीं।

निश्चय ही किसानों के इस दिल्ली कूच और घेराव को यह कहकर नकारा नहीं जा सकता कि उन्हें कानून समझने में भूल हो गयी है। क्या कहीं न कहीं इस बदलाव के लिए चिल्लाते लोगों के मन में यह धारणा नहीं पैठ गयी कि फसल उगने और बेचने वालों के सामने खरीदने वालों की ताकत कहीं अधिक है और वे अपनी शर्तों पर उनकी फसलें खरीद लेंगे, जो उनकी मेहनत या लागत का पूरा मूल्य नहीं देगी।

वे लोग इसीलिए हर मंडी चाहे वह नियमित हो या निजी में एमएसपी की गारंटी मांग रहे हैं, या उसके लिए कानून बना देने का हठ कर रहे हैं। कानून बनाने वाली सरकार की बाध्यता यह है कि अगर न्यूनतम कीमत की गारंटी ही दे दी तो कौन-सा निजी कार्पोरेट घराना इन फसलों की ओर आयेगा, जो उन्हें मांग और पूर्ति के खुले खेल के बिना निश्चित कीमतों के साये तले लाभप्रद नहीं लगेंगी। इसकी जगह वे क्या देश के दूसरे राज्यों में नकद फसलों की खेती की ओर नहीं चले जायेंगे? एमएसपी की गारंटी मिल भी गयी, तो किसानों को ग्राहक न मिलने की शिकायत पैदा हो जायेगी। यह शिकायत पुरानी है। इससे पहले शांता कुमार कमेटी का सर्वेक्षण भी यही बता गया कि जब इन नये कानूनों की वैकल्पिक मंडी व्यवस्था नहीं थी, एएमपीसी की पुरानी खरीद प्रणाली थी, तब भी किसान अपनी फसलों का छह प्रतिशत ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच पाते थे।

आय बढ़ाने का तो एक ही सीधा उपाय यहां है और वह है फसलों का वैविध्यकरण, और जीवन-निर्वाह फसलों के स्थान पर नकद एवं व्यावसायिक खेती को अपनाना। जिन राज्यों ने फसल विविधता के इस चक्र को अपना लिया है, वहां इसीलिए उन्हें इस आंदोलन में एक प्रतिबद्धता के साथ कूदते नहीं देखा गया, जितना कि पंजाब और हरियाणा के परम्परागत फसल चक्र वाले किसान सामने आये।

देश की आबादी का दो-तिहाई हिस्सा किसान, या कृषि सेवाओं से जुड़ा है। किसानों के साथ कबड्डी – कबड्डी खेलना बंद कीजिये। पूरे देश के लिए एक समान नीति जिसमे कृषि प्रशिक्षण,संरक्षण और संवर्धन भी शामिल हो घोषित करें। इसमें कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए जब आप बगैर पूछे कानून बना सकते हैं, समझ कर नीति बन सकती है। अपील बस इतनी है, किसान से कबड्डी – कबड्डी खेलना बंद कीजिये।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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