देश के सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस थानों में कैमरे लगाने का निर्देश यूँ ही नहीं दिए हैं |आम लोगों के प्रति पुलिसकर्मियों के व्यवहार के मामले आये दिन सुनने को मिलते हैं । पुलिसिया रवैये को लेकर कुछ शिकायतें आम हैं। जैसे एफआईआर नहीं लिखना, थाने में लोगों से दुर्व्यवहार करना, हिरासत में लिए गए आरोपी के साथ लॉकअप में अमानवीय सुलूक करना आदि। स्थिति यहाँ तक है कोई पुलिस अफसर सादे कपड़े में किसी थाने में पहुंच जाए, तो उसके मन में भी उसके साथ बदतमीजी न हो इसकी आशंका बनी रहती है |सर्वोच्च न्यायालय का देश भर के पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी लगाने का निर्देश दिया, पुलिस सुधार की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है । बशर्ते इस पर ईमानदारी से अमल हो |
ये कैमरे पुलिस स्टेशन के तमाम आम और खास जगहों पर लगाए जाने के आदेश दिए गये हैं |इतना ही नहीं, अदालत ने यह भी कहा है कि इन कैमरों की रिकॉर्डिंग १८ महीनों तक सुरक्षित रखी जाए।, संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत भारतीय नागरिक को मिले जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा के लिए यह एक बेहद कारगर कदम साबित होगा। बस अमल ठीक से हो |
सारे देश में पुलिस का रवैया एक समान है, सम्पूर्ण विभाग में सुधार की महती आवश्यकता है । हालांकि, सभी जगह गलत व्यवहार नहीं होता। हालात बहुत हद तक सुधरे भी हैं। कहने को उत्तर प्रदेश के कई पुलिस थानों में सर्वोच्च न्यायलय के आदेश के पहले से सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं, मगर यह बदलाव इतना प्रभावी साबित नहीं हुआ है कि आम लोग बिना किसी डर के अपनी फरियाद लिखवा सकें |
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश का अक्षरश: पालन कई समस्याओं का समाधान कर सकता है। मगर सवाल यह है कि क्या ऐसा हो सकेगा? संभव है, थाने में कैमरे का फोकस जहां होना चाहिए, वहां पर न हो। यह भी बहुत मुमकिन है कि ऐन वक्त पर कैमरे ही खराब मिलें। मुंशी जहां पर एफआईआर लिखते हैं, वे भी कैमरे की जद में न रहें। इन सब समस्याओं का समाधान अंतत: पुलिस के बड़े अधिकारियों को करना होगा। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि जिस नेकनीयती से शीर्ष अदालत ने यह निर्देश दिया है, उसी मंशा से उसका पालन भी हो। इससे पुलिस स्टेशन की हर छोटी-बड़ी गतिविधियां कैमरे में दर्ज होंगी, और पुलिस व आम जनता के आपसी व्यवहार में एक सकारात्मक बदलाव आएगा। इससे एफआईआर लिखने में पुलिस अधिकारियों द्वारा टालमटोल जैसी आम समस्या से भी पार पाया जा सकेगा।
इसका एक दूसरा पहलु यह भी है कि ‘इंटरोगेशन चैंबर’ यानी पूछताछ कक्ष में कैमरे लगे होने से पुलिसकर्मियों को कई तरह की मुश्किलें पेश आ सकती हैं। इन कक्षों को कैमरे की नजर से दूर करना होगा, अन्यथा तमाम गोपनीय सूचनाएं, जिन पर मुकदमे में आगे कार्रवाई होनी है, लीक हो जाएंगी, जिनका दुरुपयोग होगा। आतंकवादियों और देश-विरोधी तत्वों से पूछताछ में सूचना अगर बाहर आ गई, तो उसका परिणाम काफी घातक हो सकता है। समाज आशा कर सकता है कि ताजा अदालती निर्देश से आम लोगों के प्रति पुलिस के व्यवहार में बदलाव आएगा। अब यह जिम्मेदारी वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की है कि वे ऐसे प्रयास करें, जिनसे पुलिस में आम लोगों का भरोसा बढ़े।
पुलिस थाने के भीतर और बाहर पुलिस का काम गुप्त सूचना पर आधारित होता ह|लकिन कभी-कभी सूचना को नजरंदाज कर देने या उस पर समय रहते कार्रवाई करने न करने से खबर देने वाले की जान पर बन आती है। ऐसा कतई नहीं होना चाहिए। जब सूचना देने वाले को यह भरोसा हो जाता है कि उसकी खबर का पुलिस बेजा फायदा नहीं उठाएगी, तब वह संवेदनशील सूचनाएं भी साझा करने लगता है। इससे पुलिस को ही फायदा होता है।पुलिस अधिकारियों को अपने सम्पर्क हमेशा जीवंत रखने चाहिए |
अगर वे लोगों से मिलेंगे ही नहीं, तो उन तक सूचनाएं पहुंचेंगी कैसे और भला उन पर लोगों का भरोसा कैसे बढे़गा?
नी तकनीक के इस युग में अपराध होने पर फोन नंबर को सर्विलांस पर रखने की प्रक्रिया सबसे पहले होती है | फोन को निगरानी में रख देना देना ही काफी नहीं है। जंग हमेशा जमीनी कार्रवाई से ही जीती जाती है। इसलिए जरूरी है कि पुलिस अपने थानों से बाहर निकले। यह जिम्मेदारी वरिष्ठ अधिकारियों को निभानी होगी।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।