भोपाल। मप्र सरकार द्वारा कर्मचारियों के न्यायालयीन प्रकरणों पर एक अरब रूपये वार्षिक खर्चा किया जा रहा है। मप्र तृतीय वर्ग शासकीय कर्मचारी संघ के प्रांताध्यक्ष श्री प्रमोद तिवारी एवं प्रांतीय उपाध्यक्ष कन्हैयालाल लक्षकार ने संयुक्त प्रेस नोट में बताया कि मप्र उच्च न्यायालय जबलपुर व ग्वालियर, इंदौर खंडपीठ में दायर कर्मचारियों के लगभग एक लाख से अधिक प्रकरणों पर मप्र सरकार के प्रति वर्ष 100 करोड़ खर्च हो रहे है। इनमें से कई प्रकरण तो विगत दस वर्षों से लंबित चल रहे है।
विगत वर्षों में सरकार की समीक्षा में यह बात छनकर सामने आ चुकी थी कि "न्यायालयीन प्रकरणों पर सरकार द्वारा व्यय राशि अधिक है; जबकि कर्मचारियों द्वारा दायर याचिकाओं में याचित राशि कम है।" इसका भुगतान किया जावे तो भी सरकार को बचत होगी। इसकी उपेक्षा से स्पष्ट है कि "सरकार की मुकदमा प्रबंधन नीति दोषपूर्ण है, जिससे प्रतिवर्ष लगभग सौ करोड़ की चपत लग रही है।"
"मप्र तृतीय वर्ग शास कर्म संघ" मांग करता है कि विधि विभाग एवं सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा संयुक्त रूप से उच्च स्तरीय समीक्षा समिति का गठन कर समय-सीमा में रिपोर्ट लेकर तत्काल प्रभावी कार्रवाई सुनिश्चित किया जाना चाहिए। कर्मचारियों ने माननीय न्यायालय में जो याचिका दायर की है, उस हिसाब से यदि भुगतान किया जाता है; वह व्यय यदि सौ करोड़ रूपये वार्षिक से कम आता है तो तत्काल सभी मुकदमों का निपटारा करवाया जावे।
"जितने की भक्ति नहीं हो रही, उससे ज्यादा मंजीरे फूट रहे है।" यदि ऐसा है तो सरकार की दोषपूर्ण मुकदमा नीति की समीक्षा कर खजाने पर आने वाले आर्थिक बोझ को कम किया जाना ज्यादा लाभप्रद होगा। कर्मचारियों के पक्ष में फैसला आने पर सरकार को दौहरा आर्थिक नुकसान भुगतना पड़ रहा है। एक तो मुकदमेंबाजी पर खर्च, दूसरा कर्मचारियों के स्वत्वों का भुगतान। शिक्षकों को नियुक्ति दिनांक से नियमित वेतनमान, तृतीय क्रमोन्नति वेतनमान आदि में न्यायालय से सरकार को मुँह की खाना पड़ी है।
वर्तमान में प्रदेश का हर पांचवा कर्मचारी न्यायालय की चौखट पर है। 1998 व 2003 में शिक्षाकर्मी-गुरूजी के रूप में नियुक्त शिक्षक तकनीकी रूप से पुरानी पेंशन योजना के हकदार है। इनपर नियम विरुद्ध एनपीएस थोपे गया है। इसे लगातार अनदेखा किया जा रहा है। इसी प्रकार शिक्षकों को तृतीय क्रमोन्नति वेतनमान में 5400 ग्रेड पे के बजाय 4200 देकर सरकार आदेशों की गलत व्याख्या कर कर्मचारियों को न्यायालय में जाने को बाध्य करने वाले अधिकारियों की जवाबदेही तय कर इन पर योग्य अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रावधान हो ना चाहिए। इससे सरकार व कर्मचारियों को बेजा न्यायालय की चौखट तक नहीं जाना पड़ेगा। यदि सद्भावना से निर्णय लिया जाता है तो मुकदमों में चौंकाने वाली कमी परीलक्षित होगी। यह सरकार व कर्मचारी दोनों के लिए श्रेयस्कर व आर्थिक रूप से लाभकारी होगा।