जिस तरह हरा चश्मा चढ़ा लेने पर चारों और हरा ही हरा, लाल चढ़ा लेने पर लाल ही लाल दिखाई देता है, वैसे ही संसार की विभिन्नता मनुष्य के दृष्टिकोण का ही परिणाम है ।एक पेड़ को बढ़ई इस दृष्टि से देखेगा कि इसमें से काम का सामान क्या बनेगा, एक दार्शनिक विश्व चेतना और जड़ के सम्मिलित सौंदर्य को देखकर खिल उठेगा, एक पशु उसे अपने भोजन की वस्तु समझेगा और साधारण व्यक्ति उसे कोई महत्व नहीं देगा ।
मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, वह दूसरों के प्रति जैसा सोचता है, उसी के अनुसार उसके विचार होते हैं और इनके फलस्वरूप वैसा ही वातावरण तथा परिस्थितियां प्राप्त कर लेता है। दूसरों के दोष - दर्शन, नुक्ताचीनी करने वाले व्यक्ति जहां भी जाते हैं, उन्हें अच्छाई नजर ही नहीं आती और लोगों से उनकी नहीं बनती । सबको अच्छी निगाह से देखने पर सरल सात्विक स्वभाव के लोगों को सब जगह अच्छाई ही नजर आती है। बुराई में भी वह ऊंचे आदर्श का दर्शन करते हैं । मरे हुए कुत्ते से लोग घृणा करते हैं, किंतु करुणामूर्ति ईसा मसीह ने उसी में परमात्मा के सौंदर्य का दर्शन कर अपनी गोद में उठा लिया था।
वास्तव में जिस व्यक्ति के अपने भीतर बुराई रहा करती है, उसे सारा संसार बुरा दीख पड़ता है। यह बात हर व्यक्ति के बारे में सत्य है। इसलिए आदमी की पहली आवश्यकता है, अपने भीतर की बुराई को दूर करे, फिर दूसरों की बुराइयों की तरफ ध्यान दे।इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर कविवर संत कबीर ने अपने अनुभव के आधार पर कहा -
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय।।
स्पष्ट है कि कबीर जैसे संत ने इस ओर संकेत किया है कि व्यक्ति को अपनी वास्तविकता जानकर ही अपना दृष्टिकोण या नजरिया स्पष्ट करना चाहिए व दूसरों की खोज या विश्लेषण नहीं करना चाहिए।
सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करने पर बुरे तत्त्व भी अनुकूल बन जाते हैं।इस तरह बाह्य वातावरण एवं परिस्थितियों के निर्माण में मनुष्य का स्वयं का अपना दृष्टिकोण और उससे प्रेरित भाव, विचार, आचरण ही प्रमुख होते हैं। मनुष्य के मित्र और शत्रु उसके भाव, विचार, आचरण, दृष्टिकोण आदि ही हैं ।