26 जनवरी 2021 पर इस बार दिल्ली में होने वाली गणतंत्र दिवस की परेड कुछ अलग होने के अब तक मिले संकेतों ने वर्ष 1993 का एक वाकया याद दिला दिया | उस समय कक्षा ६ में पढने वाले मेरे बेटे भोपाल के लाल परेड मैदान में आयोजित गणतंत्र दिवस की परेड में मुझसे एक सवाल पूछा था “ २६ जनवरी रिपब्लिक डे है तो यहाँ पुलिस का क्या काम है ?” आज इससे विपरीत सवाल केंद्र की सरकार और सत्तारूढ़ दल कर रहा है “ दिल्ली के गणतंत्र दिवस में किसानों का क्या काम है ?”
हर २६ जनवरी को हम गणतंत्र दिवस मनाते हैं, क्योंकि इस दिन हमने ऐसे कानून लागू किए जो भारत के लोगों को संप्रभु बनाते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि हम गणतंत्र दिवस को अपने सैन्य कौशल (हथियार और जवानों) के कौशल का प्रदर्शन करते हुए मनाते हैं। इस दिन हम सैन्य साजो-सामान और सैनिकों की परेड निकालते हैं। क्या हमें इस बारे में नहीं पूछना चाहिए यह देश जिन नागरिकों का प्रतिनिधि गणतंत्र है, उनमे सबसे बड़ा हिस्सा किसका है ? शायद किसानों का और वे पिछले ५० दिन से आन्दोलन कर रहे हैं |
हर गणतंत्र की नींव में लोकतंत्र होता है और लोकतंत्र तो वह व्यवस्था है जिसमें बहुमत पाने वाले दल के प्रतिनिधियों के जरिए सरकार चलाई जाती है। इन प्रतिनिधियों को चुनने वाला हर मतदाता गणतंत्र का एक हिस्सा हैं। गणतंत्र के दो पहलू हैं -नागरिकों के बुनियादी अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता। ये दोनों पहलू अति आवश्यक हैं क्योंकि इनके बिना न लोकतंत्र हो सकता है गणतंत्र नहीं। जहां सिर्फ चुनाव होता है और व्यस्कों को वोट देने का अधिकार होता है लेकिन इनमें से किसी भी अधिकार या स्वतंत्रता का अस्तित्व अर्थपूर्ण रूप से होता न हो । एक लोकतंत्र तो हो सकता है लेकिन गणतंत्र नहीं। भारत में शनै:-शनै: लोकतंत्र का स्वरूप बदल रहा है
एक बुनियादी सवाल क्या भारतीयों को शांतिपूर्ण तरीके से सभा करने का अधिकार है? एक ऐसा अधिकार जिसमें किसी किस्म का अतिक्रमण नहीं हो सकता। सवाल का जवाब है नहीं। लोगों के पास इतना अधिकार भर है कि वे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के लिए पुलिस और अधिकारियों को आवेदन दें और इसकी अनुमति मांगें। अब इसके बाद सरकार के पास यह अधिकार है कि वह इसे मंजूर करे, खारिज करे या सिरे से इस पर कोई प्रतिक्रिया ही न दे। यह हमारे देश में आई 70 बरस की राजनीतिक अपरिपक्वता की निशानी है| आप इससे सहमत और असहमत हो सकते हैं | मेरा मानना है, यह परिपक्वता जानबूझकर नहीं आने दी गई |
इसी तरह कुछ पाने का अधिकार भी अस्तित्व में नहीं है इ अभिव्यक्ति की आजादी को भी कानूनी तौर पर अपराध बना दिया है जिनमें राष्ट्रद्रोह, अवमानना और मानहानि जैसे कानून शामिल हैं।देश के संविधान में जिन बुनियादी अधिकारों और स्वतंत्रता की बात मौजूद है वह अपने मूल रूप में आज दिखती ही नहीं। यह है कि आज नागरिकों के अधिकार तो सारे के सारे सरकार के पास हैं।
संविधान ने हम भारतीयों को वे सभी अधिकार दिए जैसे कि अमेरिका जैसे अन्य गणतांत्रिक देशों में होता है। इसक बाद संशोधनों का जो सिलसिला शुरु हुआ और बमुश्किल बुनियादी अधिकार शेष बचे हैं। नागरिको की संप्रभुता कम हो रही है । प्रशन यह है कि आखिर कौन तय करेगा कि ये पाबंदियां कितनी तर्कसंगत हैं?
संविधान में की गई टिप्पणियों और उनकी व्याख्या के ऐसे अर्थ खोजे जा रहे जिससे अधिकारों के असली अर्थ खत्म हो सकते हैं , इनमें जीवन का अधिकार और स्वतंत्रता भी शामिल है। भारत सरकार किसी को भी बिना किसी अपराध के हुए ही जेल में डाल सकती है। इसे एहतियाती हिरासत कहा जाता है जो अनुच्छेद 21 और 22 में उद्धत एक टिप्पणी में है। ऐसे में उस सरकार और अंग्रेजों के ब्रिटिश राज के बीच क्या अंतर रह जाता है जो अपने ही नागरिकों पर ताकत का इस्तेमाल करना चाहती है।आखिर इसका किया क्या जाए। समाधान यही है कि सरकार उस सब को दुरुस्त करे जो सालों से हो रहा है।
कहने को संविधान का अनुच्छेद १३ कहता है कि, “सरकार ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जो नागरिकों के अधिकारों को खत्म करे और अगर ऐसा कोई कानून है तो उसे रद्द माना जाए।” साफ है कि सरकार नागरिकों को लेकर अति-प्रतिक्रियावादी होती जा रही है। किसान आन्दोलन जैसे प्रत्यक्ष, ऐसे की कई परोक्ष और वैचारिक स्तर पर बहुत कुछ उमड़ –घुमड़ रहा है जो कह रहा है “ गणतंत्र है, तो सरकार की भागीदारी कम गण की ज्यादा हो |”
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।