सिर्फ भाषण और नीतियों का बखान मत कीजिये, हुजूर ! - Pratidin

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26 जनवरी अर्थात गणतंत्र दिवस से संसद के बजट सत्र तक भारत में नीतियों की घोषणा और संसाधनों के आवंटन का मौसम होता है | वर्तमान संदर्भ में इस बार इनका मतलब अपने-अपने ढंग से निकाला जा सकता है| वर्तमान राजनीतिक कार्यपालिका ने संरचनात्मक सुधारों से संबंधित उपादान उत्पादकता को जैसे –तैसे पूरा करने का प्रयास किया है| अनुभव से सीखते जाने की प्रक्रिया में भूमि, श्रम एवं पूंजी में सुधार तथा बेहतरी के प्रयास भी होंगे | यदि आवंटन से जुड़ी कुशलता में बेहतरी आती है, तो संरचनात्मक सुधारों से अर्थव्यवस्था लाभान्वित होगी| वैसे भारत में मध्यस्थ संस्थानों के कामकाज का रिकॉर्ड बहुत गौरवपूर्ण नहीं है|

कई वर्षों के कामकाज के दौरान हर एक संस्थान में ऐसे लोग पैदा हो जाते हैं, जो उत्पादकता या प्रदर्शन में बिना किसी समुचित योगदान के धन हासिल करने की कोशिश करते हैं| इसी तरह निहित स्वार्थ भी अस्तित्व में आ जाते हैं, राज्य के संगठन, कार्यपालिका की सहनशीलता और जनता के धैर्य के हिसाब से ऐसे तत्वों की संख्या बढ़ती रहती है|स्वार्थी और धन बनाने पर आमादा तत्व अवरोध पैदा कर, बाड़ लगाकर और धन के गलत बहाव के लिए तंत्र में छेद बनाकर काम के पूरा होने या सेवा को सही जगह पहुंचने या उत्पादन की प्रक्रिया की अवधि बढ़ाते हैं और संसाधनों के समुचित आवंटन की क्षमता को नुकसान पहुंचाते हैं|

हमारे देश भारत ने विरासत में स्वतंत्रता से पहले के कुछ शासकीय संस्थानों को हासिल किया था, जिनमें न्यायपालिका और प्रशासन सबसे महत्वपूर्ण थे| जनसंख्या में बढ़ोतरी, राज्य के गठन में परिवर्तनों, अर्थव्यवस्था की संरचना तथा भारत के लोगों की आकांक्षाओं में बदलाव आदि के बावजूद इन संस्थानों में बहुत मामूली बदलाव ही हुए हैं. ऐसे में पूरी प्रणाली घुमावदार, मनमानीपूर्ण, निराशाजनक और बेमतलब हो चुकी है.

वर्ष 2018 में आई विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, ठेकों को निर्धारित समय पर पूरा करने के मामले में दुनिया में भारत का स्थान 164वां है| पहली ही अदालत में किसी कंपनी के एक व्यावसायिक विवाद का निपटारा होने में औसतन १४४५ दिन लग जाते हैं तथा इस कार्यवाही में विवादित मूल्य का 30 प्रतिशत खर्च हो जाता है|संस्थाओं के स्वरूप में बदलाव, उनके कार्य क्षेत्र का पुनर्निर्धारण और कामकाज के तौर-तरीकों का पुनर्लेखन आज चल जारी है| बीते कुछ दशकों से प्रशासनिक सुधारों की मांग हो रही है| सरकारों ने कामकाज में बेहतरी लाने की कोशिश की है, लेकिन सेवाओं को सही ढंग से प्रदान करने तथा लक्षित लोगों की संतुष्टि के मामले में बेहतरी में मामूली बढ़ोतरी ही हो सकी है|

राजस्व जिले की मौजूदा रूप-रेखा ब्रिटिश सरकार द्वारा मुख्य रूप से इसलिए बनायी गयी थी कि राजस्व की वसूली हो सके| यह कारण अब इतना अहम नहीं है कि जिला प्रशासन के कार्मिकों की इतनी इतनी बड़ी संख्या में रखा जाए|संस्था की क्षमता, संस्कृति और समन्वय उसी के इर्द-गिर्द बनायी गयी थी, इसलिए आज भी देश में कलेक्टर ‘हुजूर’ बने हुए हैं|

यूँ तो प्रशासनिक तंत्र का आज जो प्रमुख उद्देश्य परिभाषित है, वह है विभिन्न नागरिक और कल्याण सेवाओं को मुहैया कराना तथा आर्थिक विकास को सहयोग देना| इसका जो प्रतिसाद सामने आ रहा है वो प्रशासन की अक्षमता और अकुशलता है |जो समाज में असंतोष कभी-कभी अशालीन तरीकों के रूप में बाहर आता है| इसे बदलने की कोई योजन इन भाषणों में नहीं होती |

आज यदि सांस्थानिक रूप-रेखा और संरचना में पूरी तरह फेर-बदल संभव नहीं है, तो कम-से-कम उनकी दिशा का पुनर्निर्धारण करना तथा उन्हें उद्देश्य और अपेक्षित परिणाम से फिर जोड़ना अत्यावश्यक हो गया है| किसी संस्थान की कार्य क्षमता सूचना, प्रोत्साहन, दंड तथा उत्तरदायित्व से गुंथे अधिकार से निर्धारित होती है| हालांकि आयकर प्रशासन में बदलाव हुए, लेकिन करदाताओं का भरोसा अभी भी पूरी तरह बहाल नहीं हुआ है, जिससे परिणामों पर बहुत गंभीर असर पड़ रहा है|

यही हालत न्यायिक सेवाओं के साथ भी है| इस क्षेत्र में अनेक बदलाव की कोशिशें हुई हैं. इनमें से एक प्रयास अलग व्यावसायिक न्यायालयों और ट्रिब्यूनलों की स्थापना भी है| इसके बावजूद लोगों की मुश्किलें अब भी बर्दाश्त के बाहर हैं| यह एक चिंताजनक स्थिति है| व्यवस्था की बनावट और कामकाज की प्रक्रियाएं पुरानी ही हैं| निहित स्वार्थों तथा किसी भी तरह धन बनाने की जुगत में लगे लोग अब भी आराम से अपना काम कर रहे हैं| यदि न्याय देना उद्देश्य है, तो फिर ‘न्याय में देरी न्याय देने से इनकार है|' जब तक नये न्याय शास्त्र का निर्माण नहीं हो जाता है, तब तक पुराना न्याय शास्त्र और न्यायिक मनमानी अपनी प्रभुता नहीं चला सकते हैं|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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